Sunday, July 29, 2012

Lost brother of Meghvanshis - Banjara (Gypsies, Roma) community - मेघवंशियों का गुमनाम बिरादर - बंजारा (जिप्सी, रोमा) समुदाय

ऐसे संकेत मिले हैं कि बंजारे और ख़ानाबदोश (Gypsies and Roma) सिंधुघाटी सभ्यता की ही मानव शाखाएँ हैं. बाहरी आक्रमणों के बाद ये लोग भारत के दक्षिण में भी फैले और यूरोप में स्पेन आदि देशों में भी गए. ऐसा प्रतीत होता है कि आक्रमणकारी आर्यों ने इन्हें पहचाना, इनका पीछा किया और इनके विरुद्ध विषैला प्रचार किया. स्पेन के नाटककार फेडेरिको गर्सिया लोर्का (Federico Garcia Lorca ) के नाटक 'द हाऊस ऑफ बर्नार्डा आल्बा' (The House of Bernarda Alba) में इसका उदाहरण देखा जा सकता है जिसमें इनके बारे में नकारात्मक टिप्पणियाँ हैं.
 
बहुत देर के बाद आज बंजारा समुदाय के बारे में एक अच्छा खोजपूर्ण आलेख पढ़ने को मिला. 1963 में टोहाना प्रवास के दौरान बंजारों को काफी नज़दीक से देखा है. इनकी भाषा के उच्चारण को ध्यान से सुने तो ऐसी ध्वनियाँ सुनने में आती हैं जो पंजाबी मिश्रित हैं.  इन पर भारत के एक महान शोधकर्ता डब्ल्यू. आर. ऋषि (Padmashri W.R. Rishi) ने काफी कार्य किया है (ऋषि जी से मिलने का मौका एक बार सै. 15-डी, चंडीगढ़ में मिला था और उस छोटी सी मुलाकात में उनसे रोमा लोगों की भाषा के बारे में कुछ जानकारी मिली थी). ऋषि जी से संबंधित लिंक्स से ज्ञात होता है कि रोमां और जिप्सियों के उत्थान के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयास हो रहे हैं.

बंजारों को राजपूतों और जाटों का वंशज माना जाता है. चूँकि अधिकतर दलित राजपूतों के वंशज हैं इस दृष्टि से मैं इन बंजारों-रोमां को भी मेघवंशी कहता हूँ. वैसे भी अधिकतर दलित सूर्यवंशी हैं और इनके मूल को सूर्यवंशी (भगवान) रामचंद्र के कुल में ढूंढा जाता है. इनकी वर्तमान दशा के बारे में ख़बरकोश.कॉम ने एक बहुत अच्छा आलेख प्रकाशित किया है जो भारत के बंजारों की दशा के बारे में बहुत कुछ बताता है. आलेख नीचे दिया गया है :-


Friday, July 27, 2012

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ आपके हाथें से और दूर जा रही हैं

25-07-2012 को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का भाषण सुना. इसमें ग़रीबी और अशिक्षा दूर करने की बात थी. सुनने में बहुत अच्छा लगा.

इधर मैकाले सुधारों के बाद कपिल सिब्बलाना सुधारों का दौर आ गया है. निजी विश्वविद्यालय छा गए हैं. शिक्षा आम आदमी के हाथों से बाहर चली गई है. ऋण लें और पढ़ाई करें. गाँव के सरकारी स्कूलों में पढ़ें, सस्ता श्रम बनें. सभी विश्वविद्यालयों और राज्यों में एक-सा पाठ्यक्रम लागू नहीं, हिंदी तक का नहीं. कुल मिला कर सरकार सभी नागरिकों के लिए एक समान शिक्षा का प्रबंध करने के अपने दायित्व से बच रही है.

जहाँ तक ग़रीबी का सवाल है देश में फैला भ्रष्टाचार, कुपोषण से मरते बच्चे, महँगी होती शिक्षा, विदेशों में जमा कालाधन, लोकपाल पर सरकारी टालमटोल, ग्रामीण कपड़ा उद्योग का तबाह होना, देश में हिंदी लागू न होना एक ही एजेंडा की तस्वीरें हैं. अनपढ़ों के देश में यह व्यापक एजेंडा दर्जी ने नाप लेकर बनाया है.

तो क्या किया जाए?

चुनावों के दौरान शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को चुनावी मुद्दा बनाएँ. अपने नेताओं को पूछें कि सरकार ये सेवाएँ सस्ते दाम पर कब उपलब्ध कराएगी क्योंकि यह ड्यूटी सरकार की ही है. इसे चुनावी मुद्दा बनाने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं.




Aboriginals killed again - फिर मारे गए मूलनिवासी


अनुसूचित जनजातियों के प्रति हमारा रवैया कैसा है उसका नमूना फिर असम में देखने को मिला. वहाँ हाल ही में हुई हिंसा में अब तक 41 लोग मारे गए हैं और हिंसा दूर-दराज़ के इलाकों में पहुँच गई है. दो लाख आदिवासियों को घर छोड़ कर भागना पड़ा है. हमले का उद्देश्य बोडो आदिवाससियों की ज़मीन पर कब्ज़ा करना था.

हमलावरों को पहले बंगलादेशी मुस्लिम बताया गया लेकिन बाद में पता चला कि वे स्वदेशी हैं और उन स्वदेशियों को इस बात का दुख है कि उन्हें बंगलादेशी कहा गया है.

हमलावर कोई भी रहा हो लेकिन मूलनिवासियों पर हमला हुआ है, उनकी ज़मीनें छीन लेने के लिए हमला हुआ है. चूँकि छीनी गई ज़मीनें अकसर वापस नहीं की जाती हैं अतः इस समस्या को इसी दृष्टि से देखना ज़रूरी है. यदि ये आदिवासी ऐसे ही उजड़ते रहे तो इंसानों की बस्तियों का क्या होगा?

आपको नहीं लगता कि भारत के ये आदिवासी केवल गणतंत्र दिवस पेरेड की झांकियों के लिए ही बचा कर रखे गए हैं और केवल वहीं अच्छे दिखते हैं? नहीं न?
 
काश! इन तक स्वतंत्रता का उजाला पहुँचता, इनके घरों तक विकास पहुँचने दिया जाता और ये भारत के लोकतंत्र में सुरक्षित महसूस करते. यदि ये नागरिक सुरक्षित नहीं, इनके घर सुरक्षित नहीं तो भारत के नागरिक कैसे समझ पाएँगे कि नक्सलवाद के पीछे लगे लोग ग़लत हैं.




Monday, July 23, 2012

New face of casteism - जातिवाद का नया चेहरा


इस समस्या पर हम जब भी सोचते हैं, आशंकाओं के साथ सोचते हैं. यदि हम कहें कि जातिपाति जल्दी समाप्त होने वाली है तो ऐसा नहीं है. हमारी वर्तमान शासन व्यवस्था सदियों से मनुस्मृति से संचालित रही है. उसके प्रावधानों का हमारी परंपराओं पर गहरा प्रभाव है.

हमारे देश में छुआछूत एक अपराध है. लेकिन तत्संबंधी नियमों का उल्लंघन होने पर किसी को आज तक कोई दंड मिला हो ऐसा देखने में नहीं आया. आमिर खान के शो में और अन्यत्र भी दिया जा चुका अंतर्जातीय विवाहों का सुझाव एक कारगर उपाय है जो प्राकृतिक रूप से ज़ोर पकड़ रहा है. लेकिन उसके प्रभावी होने में काफी समय लगेगा.

मुख्य मुद्दा है धन के प्रवाह का. यदि सरकार आरक्षण के माध्यम से अनुसूचित जातियों/जनजातियों/अन्य पिछड़ी जातियों की ओर धन का प्रवाह होने देती है तो देश के मध्यम और धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ उद्योग जगत को सस्ते श्रम (cheap labor) की उपलब्धता खतरे में दिखने लगती है. इसी लिए इन वर्गों की शिक्षा के स्तर को अच्छा नहीं होने दिया जाता चाहे उसके लिए कपिल सिब्बलाना सुधार ही क्यों न लागू करने पड़ें. इन वर्गों से टीचरों की भर्तियाँ कम ही की जाती हैं. गाँवों में टीचिंग स्टाफ स्कूल से अनुपस्थित रहता है और देश में एक जैसे पाठ्यक्रम लागू नहीं किए जाते. ये सब कुछ संकेत मात्र है कि सरकार इन ग़रीब वर्गों की हालत सुधारने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है बल्कि इन वर्गों को ग़रीब और सस्ता श्रम बनाए रखने में ही उसकी रुचि लगती है.

सरकार का दूसरा हथकंडा है कि सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र को भी प्राइवेट सैक्टर के हाथों में सौंपती जा रही है. जबकि लोकतंत्र-प्रजातंत्र में सरकार की पहली ज़िम्मेदारी है कि वह पब्लिक को शिक्षा और स्वास्थ्य की सेवाएँ उचित कीमत पर देने की खुद व्यवस्था करे क्योंकि यह व्यवसाय के क्षेत्र में नहीं आता. कई पूँजीवादी व्यवस्था वाले देशों की सरकारें इस कर्तव्य का निर्वाह कर रही हैं. 

यदि सरकार यह नहीं कर सकती तो लोकतंत्र का अर्थ ही क्या रह जाता है. तब तो इसे निजीतंत्र का नाम देना उचित होगा जिसमें आम आदमी के हित में कोई नीति बनती ही नहीं.



Wednesday, July 11, 2012

Caste Census - जातीय जनगणना: कभी न खत्म होने वाली गिनती


आजाद भारत में किसी भी सरकार की शायद यह पहली परियोजना है जिसके खत्म होने की कोई तारीख नहीं है. इसके पूरा न होने के लिए कोई जवाबदेह नहीं होगा और इसमें हुई गलतियों का किसी से जवाब मांगना संभव नहीं होगा. इस योजना की घोषणा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 7 मई, 2010 को लोकसभा में की थी. जब पक्ष और विपक्ष के सभी दलों और सांसदों ने एक राय से 2011 की जनगणना में जाति को जोड़ने की मांग की, तो प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार सदन की भावना का ख्याल रखेगी और कैबिनेट इस बारे में जल्द ही निर्णय लेगी. सभी दलों ने इसके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का आभार जताया था.

वह योजना आज जमीन पर है या अधर में, किसी को नहीं मालूम. देश में हर 10 साल में होने वाली जनगणना 21 दिन में पूरी होती है. लेकिन आज कोई पक्के तौर पर यह नहीं कह रहा कि अभी जो सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना चल रही है वह कभी पूरी होगी भी या नहीं. एक आरटीआइ के जवाब में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बताया है कि ''सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना 2011 के समापन की कोई समयसीमा नहीं है.''

इस गणना के लिए धन की कोई कमी नहीं है. केंद्र सरकार ने सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना के लिए 3,543 करोड़ रु. निर्धारित कर दिए हैं. यह रकम 10 वर्षीय जनगणना के खर्च से 1,345 करोड़ रु. ज्‍यादा है. केंद्र सरकार ने बताया है कि इस रकम में से पौने तीन हजार करोड़ रु. राज्‍यों और सरकारी कंपनियों को दिए जा चुके हैं.

गणना का काम एक साल पहले 29 जून, 2011 को त्रिपुरा के हाजेमोरा ब्लॉक से शुरू किया गया. 21 दिन में पूरा होने वाला काम 365 दिन बाद भी-जैसा कि सरकार बताती है-65 फीसदी ही पूरा हुआ है. और यह 65 फीसदी भी आंकड़े जुटाने का काम है. इसकी पड़ताल, आखिरी आंकड़ा तैयार करना, उसे ब्लॉक, जिला, राज्‍य और देश के स्तर पर संकलित करना और फिर उसे ऐसे आंकड़ों की शक्ल देना, जिसका विकास योजनाओं के लिए इस्तेमाल किया जा सके, यह सब तेजी से कर पाना आसान नहीं है, खासकर तब जबकि न तो केंद्र सरकार और न ही राज्‍य सरकारें किसी डेडलाइन के तहत काम कर रही हैं.

हालांकि इस योजना के प्रभारी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश उम्मीद जताते हैं कि ''इसके सितंबर-अक्तूबर तक पूरा होने का अनुमान है.'' पहले यह सितंबर, 2011 तक ही पूरी होनी थी.

लेकिन यह कोरा अनुमान ही है क्योंकि देश के सबसे बड़े राज्‍य उत्तर प्रदेश ने राज्‍य में गणना पूरी करने के लिए इस साल के अंत तक की समयसीमा तय की है. राज्‍य की नोडल एजेंसी ग्राम्य विकास विभाग के उपायुक्त जगदीश सिंह कहते हैं, ''दिसंबर माह तक पूरे प्रदेश में गणना का काम कर लिया जाएगा.'' 29 मई, 2012 तक उत्तर प्रदेश में गणना शुरू भी नहीं हुई थी. 25 जून तक के आंकड़ों के मुताबिक, राज्‍य में 0.13 फीसदी काम हो पाया है, जबकि बिहार में 29 मई तक 2.06 फीसदी काम हुआ है.

जाहिर है, इन बड़े राज्‍यों में काम पूरा होने के बाद ही आखिरी आंकड़ों को संकलित करने का काम पूरा हो पाएगा. जनगणना कमिश्नर सी. चंद्रमौलि कहते हैं, ''गणना में हो रही देरी के लिए राज्‍य सरकारें जिम्मेदार हैं.'' जयराम रमेश का भी कहना है कि ''जल्द काम पूरा करने के लिए हम राज्‍य सरकारों को बाध्य नहीं कर सकते.'' दूसरी ओर, राज्‍य सरकारों का इस बारे में स्पष्ट कहना है कि इस जनगणना के बारे में जो पूछना है,
केंद्र सरकार से पूछें. उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बारे में आरटीआइ से जवाब मांगने पर कहा कि मांगी गई सूचना केंद्र सरकार के जनगणना विभाग के पास है.

लेकिन सवाल उठता है कि 10 साल पर होने वाली जनगणना को जब 21 दिन में पूरा किया जा सकता है तो मौजूदा गणना एक साल में भी पूरी क्यों नहीं हो पाई. जनगणना का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन जनगणना आयुक्त कराते हैं. भारत के पूर्व जनगणना आयुक्त एम. विजयनउन्नी कई बार केंद्र सरकार को यह लिख चुके हैं कि जाति की गिनती जनगणना में एक कॉलम जोड़ने भर से कराई जा सकती है और इस तरह सरकार भारी खर्च से बच जाएगी.

लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय के टालमटोल वाले रवैए के कारण यह नहीं हो सका और इस तरह जो आंकड़ा 2011 में आ सकता था, उसके लिए सरकार अभी तक जूझ रही है.

एनडीए के संयोजक और जेडी-यू अध्यक्ष शरद यादव इस गफलत के लिए सीधे तौर पर गृह मंत्री पी. चिदंबरम को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कहते हैं, ''चिंदबरम और चंद्रमौलि जाति जन गणना के खिलाफ थे इसलिए इसके चार हिस्से कर दिए, जबकि यह काम जनगणना विभाग का है.''

चंद्रमौलि इस पर सफाई देते हैं कि जाति की गिनती साथ कराने से जनगणना के आंकड़ों की विश्वसनीयता पर असर पड़ता. साथ ही सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक करके उस पर आपत्तियां मांगी जाएंगी, जबकि 10 वर्ष पर होने वाली जनगणना की जानकारी कानूनी अड़चनों के कारण सार्वजनिक नहीं की जा सकती. इसलिए व्यवस्था यह बनाई गई कि गणना राज्‍य सरकारें करेंगी, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी गरीबी उन्मूलन विभाग इस काम की निगरानी करेगा. केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत काम करने वाले जनगणना आयुक्त इस गणना के लिए तकनीकी सहायता उपलब्ध कराएंगे.
केंद्र सरकार ने इस काम को हैंडहेल्ड कंप्यूटर यानी टैबलेट के जरिए कराने का फैसला करके और मुसीबत मोल ले ली. चंद्रमौली का दावा है कि टैबलेट से जनगणना करने वाला भारत पहला देश है जबकि जनगणना का काम अब तक कागज पर सफलतापूर्वक होता रहा है और यह विवादों से भी परे है. चंद्रमौलि नई व्यवस्था की खासियत बताते हैं, ''पूरा सिस्टम ऑनलाइन है और गड़बड़ी की गुंजाइश नहीं है.'' 2010 में विकासशील देश ब्राजील ने उन्हीं कंप्यूटरों की मदद से देशभर की जनगणना सफलतापूर्वक कर ली थी.

केंद्र सरकार ने इस काम के लिए 6.40 लाख टैबलेट के ऑर्डर दे दिए. इनके लिए चिप चीन से खरीदे गए. ये ऑर्डर भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, ईसीआइएल (इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) और आइटीआइ लिमिटेड को दिए गए हैं. लेकिन ये कंपनियां समय पर टैबलेट नहीं दे पाईं. जयराम रमेश गड़बड़ियों का सारा जिम्मा इन कंपनियों पर लाद देते हैं (देखें बातचीत).

हालांकि जनगणना कमिश्नर चंद्रमौलि कहते हैं, ''कंपनियों ने अच्छा काम किया है. उन्होंने कम कीमत और कम समय पर टैबलेट तैयार करके दिए हैं.'' जनगणना पूरी होने के बाद 200 करोड़ रु. में आए इन टैबलेट का क्या होगा, इस बारे में किसी को नहीं मालूम. रमेश कहते हैं ''इसका इस्तेमाल किसी भी काम में हो सकता है. लेकिन यह अभी तय नहीं है.''

फिलहाल गांवों में बिजली न होने से टैबलेट जिला मुख्यालयों में ही रखे रह गए. बिहार के नवादा जिले में नवादा प्रखंड को छोड़कर कहीं भी बैटरी, यूपीएस और चार्जिंग की व्यवस्था नहीं की गई है. पटना और नवादा समेत बिहार के नौ जिलों में तकनीकी सहयोग दे रही कंपनी ईएमडीईई डिजिट्रॉनिक्स के प्रोजेक्ट मैनेजर उज्‍द्गवल सिन्हा कहते हैं, ''बिजली की समस्या के कारण काम में मुश्किल आ रही है.

लेकिन काम में तेजी लाने की कोशिश की जा रही है.'' वहीं ग्वालियर में गणना करने वालों को काम पर भेजा गया लेकिन साथ में टैबलेट नहीं दिए गए. उन्होंने जुटाई गई जानकारी कागज पर दर्ज की और फिर दफ्तर में बैठकर टैबलेट में उसकी एंट्री की.

जाति जनगणना में यह बात भी खास है कि इसमें काम में निजी कंपनियों और एनजीओ को लगाया गया है. बिहार में 38 जिलों में तकनीकी सहयोग के लिए पांच कंपनियों को लगाया गया है. उत्तराखंड के चमोली जिले में यह काम मैक्रो इन्फोटेक को सौंपा गया है, जिसने इसे यूके-एड को सौंप दिया. इस जिले में जनगणना में सात एनजीओ की मदद ली जा रही है.

जनगणना कर्मियों को महीने में ज्‍यादा से ज्‍यादा 4,950 रु. के भुगतान का प्रावधान है, जिसमें 3,000 रु. मासिक मानदेय और यात्रा भत्ता शामिल है, यह रकम उन्हें अब तक नहीं मिली है. छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में टैबलेट खराब होने की समस्याएं भी आईं. वहां जनगणना का काम करने वालों को अब तक मेहनताना नहीं मिला है.

देशभर से मिली जानकारी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल पर हो रही सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना की हकीकत कितनी हास्यास्पद है. शीर्ष स्तर पर अड़ंगों के बाद आधे-अधूरे मन से की जा रही इस गिनती के खत्म होने की कोई मियाद नहीं है.

-साथ में आशीष मिश्र लखनऊ से, अशोक कुमार प्रियदर्शी नवादा से, वीरेंद्र मिश्र बस्तर से, समीर गर्ग, ग्वालियर से और ओम प्रकाश भट्ट चमोली से