नवभारत टाइम्स की एक साइट से प्राप्त जानकारी आपसे शेयर कर रहा हूँ. यह दिल्ली के एक सज्जन के कमेंट्स पर आधारित है
बाबा
साहेब को गाँधी के साथ 3
बार
गोलमेज़ सम्मेलन करने की
ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि
गाँधी 85%
दलित
अछूत बैक्वर्ड और माइनोरिटीस
को किसी प्रकार का कोई भी
सामाजिक अधिकार देने का विरोध
कर रहा था.
चाहता
था कि भारत के 15%
लोगों
को अँग्रेज़ों से आज़ादी मिल
जाए लेकिन 85%
बहुजन
उन 15%
अल्पजनों
के गुलाम ही रहे.
इसी
बात को लेकर गाँधी और बाबा
साहेब में तकरार चल रही थी.
पहले
तो गाँधी ने ऐसी किसी भी मीटिंग
का विरोध किया.
लेकिन
अंग्रेज़ों के दबाव के कारण
वो बहस के लिए तैयार हो गया.
लेकिन
जब उसे लगा कि बाबा साहेब तो
उनको वे सभी हक देना चाहते हैं
जो सवर्णो को मिले हैं तो वो
गोलमेज सम्मेलन वहीं छोड़कर
चल दिया.
इसी
घटना के बाद गाँधी का वास्तविक
चरित्र अँग्रेज़ों के सामने
खुलकर आया.
जब
बाबा साहेब को लगा कि गाँधी
एंड कंपनी बहुजनों को कोई हक
नहीं देना चाहती तब बाबा साहेब
ने अलग प्रतिनिधित्व (electorate)
की
माँग की.
...और
गाँधी आमरण अनशन पर बैठ गया
था. इससे
अहिंसावादी अंबेडकर दबाव में
आ गए और आगे चल कर दोनों के बीच
पूना पैक्ट हुआ था और अलग
इलैक्टोरेट की जगह दलितों के
प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण
देना तय हुआ था.
जहाँ
गाँधी 15%
सवर्णो
का प्रतिनिधित्व कर रहे थे
वही अंबेडकर 85%
दलित
अछूतों/पिछड़ों
का प्रतिनिधित्व कर रहे थे
जो हज़ारों सालों से मनुवादियों
के गुलाम थे,
जो
सामाजिक,
बौद्धिक,
आर्थिक
स्तर पर शून्य हो गये थे.
गाँधी
ने साफ-साफ
कहा था कि अगर अंग्रेज हमें
आज़ाद करते हैं और उसमें दलितों
को कोई अधिकार देते हैं तो ऐसी
आज़ादी हमें नहीं चाहिए.
उसने
हमेशा यह कोशिश की कि आज़ादी
के बाद दलित और पिछड़े गुलाम
बने रहें और उन्हें कोई भी
सामाजिक अधिकार न मिले.