Friday, March 30, 2012

Shadow of team Anna - टीम अन्ना का साया


टीम अन्ना का सार-संक्षेप यह है कि इसकी खुराफात की जड़ में अरविंद केजरीवाल है जिसकी महत्वाकांक्षाएँ शुरू से ही बहुत बड़ी रही हैं. इसे अपनी छोटी-मोटी कार्रवाइयों से मनोवाँछित लाभ नहीं हो पा रहा था सो इसने अन्ना का दरवाज़ा खटखटाया और अन्ना इसके प्रस्तावित आंदोलन को नेतृत्व देने का वादा कर बैठे जिसे वे अब ग़लती की तरह निभा रहे हैं.

केजरीवाल और टीम की कार्यशैली संसद और संविधान दोनों को गंभीर चुनौती देती है जो अपने आपमें ऐसी कार्रवाई है जिसका संज्ञान अभी तक संसद ने गंभीरता से नहीं लिया है. इसे लोकतंत्र की उदात्त मनस्विता ही माना जाएगा. 

लेकिन यह घटनाक्रम अंततः कांग्रेस की ही ग़लती है. इसने इस समूह को लोकपाल बिल का मसौदा बनाने के लिए निमंत्रित किया ही क्यों? क्या संसद में योग्य व्यक्तियों की कमी थी?

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से पहले केजरीवाल की घुसपैठ संभवतः कांग्रेस और बीजेपी दोनों में थी क्योंकि उस समय इनके 100-50 लोगों के एक समूह की हर बेजा ज़िद मानी जा रही थी या सिस्टम इनकी बात मानने पर आमादा था. मैं यूथ फॉर इक्वैलिटी संगठन की बात कर रहा हूँ जो सरकारी नौकरियों में आरक्षण का हर प्रकार से विरोध करता रहा है. 

अब अन्ना और केजरीवाल की छवि से युक्त यह दोमुँहा फन पिछड़ों का दिखता भी है और पिछड़ों के विरुद्ध मज़बूत भी हो रहा है. कमाल यह है कि संसद इनके विरुद्ध प्रस्ताव पारित कर रही है. क्या बात है सर जी! बहुत ख़ूब!! अन्ना अब क्या उगलें और क्या निगलें!!!

Wake up Anna Hazare - अन्ना, तुम्हें चेतना होगा


यह लिंक भी देखें जो एक पत्रकार का है-

गाँधी की बात - गोडसे का काम

Megh Politics 

Thursday, March 29, 2012

Waging war against nation- diluting the definition - टलना फाँसी का बनाम राष्ट्र पर हमला

कानून का विशेषज्ञ नहीं हूँ लेकिन भारत के एक नागरिक को राष्ट्र पर हमले की परिभाषा के बारे में जो जानना चाहिए उसके बारे में जो जानता हूँ उसके आधार पर कुछ कहने का अधिकार है.

किसी सरकारी सेवक या सरकारी संपत्ति को जानबूझ कर हानि पहुँचाने का कार्य राष्ट्र पर हमले की परिभाषा के अंतर्गत आता है. मुख्यमंत्री की हत्या इसी के तहत है.

कई वर्ष पूर्व पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के समय की परिस्थितियाँ आतंकवाद की और स्वर्णमंदिर को अलगाववादियों के कब्ज़े से मुक्त कराने की थीं जिसके क्रम में इंदिरा गाँधी और बेअंत सिंह की हत्या हुई. कुछ जुनूनी मृत्यु के बाद, कुछ फाँसी के बाद शहीद घोषित हुए. बलवंत सिंह राजोआणा 'जीवित शहीद' है जिसकी फाँसी की सज़ा को माफ़ कराने की कोशिश बहुत बड़े स्तर पर चल रही है.

आतंकी मामलों में संगठित धर्म और राजनीति का घालमेल क्या कर सकता है यह देखने योग्य है. यह घालमेल इस बात को स्वीकार नहीं करता कि धार्मिक स्थल पर सशस्त्र आतंकियों/अलगाववादियों का कब्ज़ा धर्मस्थल पर और देश पर हमला होता है. वे पुलिस/सेना की कार्रवाई को ही अपवित्र कार्रवाई मानते और घोषित करते हैं.

यह इसी घालमेल की सोच का परिणाम है कि पंजाब में लगभग सभी राजनीतिक दल बलवंत की फाँसी को रुकवाने के लिए एकत्रित हो गए हैं. बेअंत सिंह के उत्तराधिकारी भी उनके साथ हैं.

उल्लेखनीय है कि राजोआणा ने बेअंत सिंह की हत्या में अपनी संलिप्तता स्वीकार की है. उसने फाँसी की सज़ा के विरुद्ध कभी दया याचिका दायर नहीं की. उसका मानना है कि उसने अपने साथी को मानवबम के तौर पर उड़ाया और प्रयोग किया था. उसे ख़ुद को फाँसी से बचाने का कोई औचित्य नहीं दिखता क्योंकि उसका मृत साथी आज न तो अपील कर सकता है और न वापस आ सकता है. क्या बेअंत सिंह का जीवन वापस आ सकता है? नहीं.

इस बीच सतलुज और ब्यास में काफी पानी बह चुका है. आज की तारीख़ में इसे किसी व्यक्ति के जीवन से जोड़ कर देखना अच्छी बात है लेकिन कहीं हम राष्ट्र पर आक्रमण की परिभाषा को खतरे में तो नहीं डाल रहे हैं? यह गंभीर प्रश्न है जो हर उस परिस्थिति में हमारे सामने आ खड़ा होगा जब कोई धार्मिक-राजनीतिक हत्या होगी और कोई न कोई संगठित धर्म किसी राजनीतिक दल के साथ सड़कों पर उतर कर हत्यारों को शहीद घोषित कर देगा. हमारे देश में संगठित धर्म हैं. आने वाले समय में और भी होंगे. कल नक्सली भी अपनी सोच बदलते हुए या रणनीति के तहत किसी धर्म को अंगीकार कर लें तो शायद सब से अधिक खुशी भारत में पसरे माओ-लेनिनवाद को होगी :))

धर्म की आड़ में यदि अलगाववाद या आतंकवाद कहीं सिर उठाए तब हम किस दिशा में झांकेंगे और कितने समझौते करेंगे? क्या लोकतांत्रिक समझौतों से प्रेरित आतंक और शहादत की घोषणाओं का दौर चलता रहेगा और राष्ट्र पर हमले की परिभाषा पतली की जाएगी? अच्छा होगा धर्म के अनुयायियों की संख्या के आधार पर कह दिया जाए कि ले भइया तेरे पचास लाख अनुयायी, तुझे 50 धार्मिक आतंकियों का कोटा. खुश रहो, आबाद रहो!!!

हस्तक्षेप.कॉम से : राजोआणा से एक अंत क्यों, शुरूआत भी हो सकती है !

Monday, March 26, 2012

The voice of Meghvanshis - मेघवंशियों की आवाज़



दुनिया में सब से कठिन कार्यों में से एक है अख़बार चलाना. दलितों के पक्ष को सही तरीके से रखने वाला अख़बार चलाना और भी कठिन इस मायने में है कि अख़बार को चलाने के लिए जितने पैसे की ज़रूरत होती है उतना मिलता नहीं. सरकारी विज्ञापन और सीधा वित्त लगभग अनुपलब्ध ही है.

इन परिस्थितियों में जयपुर से श्री गोपाल डेनवाल ने एक छोटा समाचार पत्र दर्द की आवाज़ निकाला था जिसका मार्च, 2012 का अंक मिला है. मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ हूँ. इसमें मेघवंशियों की बात है, उनकी अपेक्षाएँ, पीड़ा और महत्वाकांक्षाएँ और उनकी प्रार्थनाएँ हैं. इस समाचार पत्र के प्रधान संपादक श्री डेनवाल के आलेखों का स्वर आह्वान का है जो दलितों के विकास में आती बाधाओं को चुनौती देता चलता है. सबसे बढ़ कर इसमें मेघवंश की एकता के प्रति प्रतिबद्धता है.

यह देख कर खुशी होती है कि इस समाचार पत्र की सर्कुलेशन बढ़ रही है.

संपर्क :
श्री गोपाल डेनवाल
ए-2, ए, नितेश विला
विवेकानंद कॉलोनी
नयाखेड़ा, अंबाबाड़ी,
जयपुर.

हम अपने समुदाय के समाचार पत्रों को पढ़ने के अभ्यस्त हो रहे हैं. यदि आप इन्हें पढ़ते हैं तो इसे उन मेघवंशी भाइयों के साथ शेयर करें जो इच्छुक हैं या अंशदान दे पाने की हालत में नहीं हैं. शुभ को शीघ्र करें. शुभकामनाएँ.   

Megh Politics

Thursday, March 15, 2012

आशंकाएँ व्यापती हैं तो क्या!


Chuni Lal Bhagat
भगत चूनी लाल जी कैबिनेट मंत्री बन गए हैं.

सिपाही जब युद्ध के मैदान में जाने लगता है तो उसके घायल होने की आशंका व्यापने लगती है. जब दलित जातियों के लोग नौकरी पा लेते हैं तो रिपोर्टें खराब होने की आशंका घेरने लगती है. ऐसे ही जब हमारे राजनीतिक कार्यकर्ता मंत्रीमंडल में पहुँचते हैं तो हमें ए. राजा और बंगारूलक्ष्मण की याद आना स्वाभाविक है. राजनीति षडयंत्रों का दूसरा नाम है.

देखा गया है कि राजनीतिक पार्टियों में दलित कम होते हैं और उनकी आवाज़ भी उसी अनुपात में सुनी जाती है. आला कमान की कमान में वे नन्हें तीरों की तरह होते हैं.
Chuni Lal Bhagat with Prakash Singh Badal
यह सच है और सामने है. राजनीति के युद्ध में जाना है तो राजनीतिक मृत्यु की आशंका भी व्यापेगी. तो क्या राजनीतिक अवसरों को जाने दिया जाए? नहीं. आशंकाएँ कार्य करने में मदद नहीं करतीं. सत्ता में भागीदारी करनी है तो जोखिम उठाने होंगे. अनुभव साझा करने होंगे और अपने काडर खड़े करने होंगे.

सतर्कता बरतें, आशंकाओं को भुलाएँ और सत्ता का स्वाद चखें. शुभकामनाएँ.


Megh Politics

Megh Politics

Wednesday, March 14, 2012

Megh Churn-3 – मेघ मथनी (मधाणी)-3



चाटी में रखा धर्म

बड़ीईईईई मुश्किल है. मिस्टर मेघ से बात करना ख़तरे से ख़ाली नहीं. वे हमेशा ज़मीनी बात कहें यह ज़रूरी नहीं लेकिन वे कड़ुवी बातें कहेंगे यह तय है. इस बार जब वे भार्गव कैंप (मेघ नगर) की गली में शहतूत के नीचे बिशना टी-शाप पर मिले तो जैसा कि होता आया है, विषय खिसक कर ऐसी जगह पहुँचा जिसका मुझे अनुमान नहीं था. मैंने ही शुरू किया था-

मैं- सर जीईईईई, जय हिंदअअ. कैसे हैं.

मि. मेघ- सुना भई, तेरी दोनों टाँगे चल रही हैं न?

मैं- क्यों सर जी, मेरी टाँग को क्या हुआ.

मि. मेघ- पिछली बार तेरे इतिहास की टाँग तोड़ दी थी मैंने, इस लिए पूछा. हा हा हा हा हा हा....

मैं- (उदास स्वर में) हाँ अंकल जी. अब हमें बिना टाँग से गुज़ारा करना पड़ेगा क्योंकि दूसरी भी टूटती नज़र आ रही है. बुरा न मनाना सर जी, हमारा इतिहास तो है नहीं, धर्म भी रसातल में जा रहा है.

मि. मेघ- क्या हुआ? बड़ा दुखी नज़र आ रहा है. तेरा सनातन धर्म तो आर्यसमाज है. उसकी बैसाखी टूट गई क्या? लगता है गायत्री मंत्र ने बेड़ा पार नहीं किया.

मैं- उस बैसाखी को टूटे तो 60 साल हो गए. अब समस्या बहुत गंभीर हो गई है.

मि. मेघ- ओह, तो तेरी समस्या धर्म है. तू खुद को हिंदू कहता है और हिंदू तेरे को हिंदू नहीं मानते. यही तेरी समस्या है तो दफ़ा हो जा.

मैं- क्या बात करते हो अंकल जी!! हम हिंदू नहीं तो फिर और क्या हैं? यही न कि हिंदुओं में सबसे नीचे रखे हुए हैं.

मि. मेघ- खोत्तेया, सब से नीचे रह कर तू खुश है. तभी तो तू महान है उल्लुआ.

मैं- तो क्या आप हिंदू नहीं हो?

मि. मेघ- हूँ. लेकिन एक अलग मायने में. होशियार रहता हूँ कि बीजेपी और आरएसएस के झाँसे में न आऊँ. ये तो निरा धोखा हैं.

मैं- यह तो आप में कांग्रेस का भूत बोल रहा है. आप आधे तीतर और आधे बटेर हो चुके हो.

मि. मेघ- तू सही कह रहा है. पर तू मेरी छोड़, अपनी बता. चाय पीनी हो तो बात कर.

(चाय से बातचीत के दरवाज़े खुलते हैं. बिशना को कड़क चाय का आर्डर किया. कैरोसिन का स्टोव शूँ-शूँ करने लगा. भाप के साथ पत्ती की महक आने लगी.

मि. मेघ- चल, अब शुरू हो जा. चाय बन रही है.

मैं- अंकल जी, आपने भी सुना होगा कि बहुत से मेघ ईसाई बन गए हैं.

मि. मेघ- और तेरे पेट में दर्द उठता होगा? हैं? यदि तेरी यही समस्या है तो इसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं. ओए बिशना आर्डर कैंसल कर.

मैं- बिशना आर्डर कैंसल नहीं होगा....मेघ जी यह बिरादरी की समस्या है. हम हैं ही कितने? पहले ही एकता की कमी है और हम और ज़्यादा बँट जाएँगे.

मि. मेघ- अच्छा...अच्छा...अच्छा. तो तुझे यह ग़म खाए जा रहा है! अच्छा यह बता कि तुझे यह ग़म कब से खा रहा है? जब से मेघ सिख, आर्य समाजी बने या मुसलमान हुए या फिर राधास्वामिए बन गए? अच्छा यह बता कि सिख, आर्यसमाजी, मुसलमान, राधास्वामिए या ईसाई बनने से पहले तुम्हारा कोई धर्म था? था तो कौन सा था? चल बता...

मैं- मैं नहीं जानता, बिल्कुल.

मि. मेघ- तो फिर दुखी क्यों होता है? तू कुछ नहीं है और ख़ुद को समझता भी है कि कुछ है. मतलब तू पहले कुछ भी नहीं था, और अब कुछ बन गया है. जो बनेगा, वो बँटेगा. इसमें कोई नई बात है क्या? तुझे यह तक तो पता नहीं कि तेरा पुराना धर्म क्या है. तो क्या तेरे पुरखे बिना धर्म के जीते आ रहे थे? डेरे-डेरियाँ क्या ऐसे ही बन गए? अक्ल की बात किया कर यार.

मैं- मैंने तो कहीं इसके बारे में पढ़ा नहीं.

मि. मेघ- मैं बताता हूँ. तेरा धर्म है- अनपढ़ता. (विरक्त हो कर) सारी उम्र ऐसे ही कट गई. बाकी भी कट जाएगी.

मैं- (खीझ कर) तो फिर आप बताओ न. क्या था धर्म हमारा?

मि. मेघ- तेरे मुँह में तो बस कोई खीर बना कर डाल दे. ख़ुद तो कुछ करना ही न पड़े. पुत्तर, स्टेट लाईब्रेरी में जाया कर. चल तेरे को एक शार्ट कट बता देता हूँ. कुछ न पढ़ सके तो अंबेडकर को पढ़ ले.

मैं- यूँ ही मारे जा रहे हो. कुछ बताओ तो सही. अंबेडकर के बारे में हो सकता है मैं कुछ जानता होऊँ.

मि. मेघ- अच्छा तो यह बता कि अंबेडकर का धर्म क्या था?

मैं- वो हिंदू थे, और क्या.

मि. मेघ- लक्ख लानत..

मैं- क्यों?

मि. मेघ- वे बौध थे.

मैं- (अचानक याद आने पर) हाँ-हाँ-हाँ-हाँ-हाँ, मैंने सुना था.

मि. मेघ- (चुभती आवाज़ में) बौध धर्म के नाम से अब तेरे पेट में फिर से दर्द उठ रहा होगा. नहीं? बिशना से तू चुल्लू भर पानी ले ले और डूब कर मर जा.
(बिशना की आँखें चमक उठीं)

बिशना- हंबेडकर ने कहा था चाचा, कि मैं नरक में पैदा तो हो गया था पर नरक में मरूँगा नहीं.

मि. मेघ- सुन लिया? जो तू नहीं जानता वह बिशना जानता है. अब धरती पर तेरे मरने के लिए कोई जगह नहीं. तू सिर्फ़ बिशना की चाय में डूब कर मर सकता है. चाय पकड़ ले.....और आखिरी बार समझ ले कि धर्म एक ऐसा नकली दही है जिसमें से कोई भी मधाणी मक्खन नहीं निकाल सकती. तू दुखी मत हुआ कर, मेघ बहुत स्याने लोग हैं इसका विश्वास रख.

मिस्टर मेघ कहीं भी, कुछ भी कह सकते हैं. लेकिन उन्होंने आख़िर तक मेघों के ईसाई बनने पर अपनी ओर से कुछ नहीं कहा. मिस्टर मेघ हैं ही मेघ, ऊँची सोच वाले, एकदम आसमानी. कोई कुछ भी बने, वे धर्म को लेकर परेशान नहीं होते. ईसाई मिशनरियों, आरएसएस ने शायद बरास्ता मि. मेघ के मेघों को जान लिया है. मेघ ईसाई भी बन रहे हैं और बुड्डा मल ग्रऊँड में आरएसएस की शाखा भी लगने लगी है. बहुत ख़ूब और जय हो !!

लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ कि मेघ एकता की बात पर मि. मेघ मुझे गोली क्यों दे गए?   

Megh Politics
  

Bhagat Chuni Lal - The first Megh from Punjab to becomes cabinet minister

भगतश्री चूनी लाल जी पंजाब के पहले ऐसे मेघ हैं जिन्हें अकाली-भाजपा गठगंधन की सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद मिला है. वे विधान सभा मैं भाजपा के विधायक दल के नेता भी हैं. पंजाब के राज्यपाल शिवराज पाटिल ने उन्हें पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई. उनके शपथग्रहण समारोह की आज दिनांक 14-03-2012 की कुछ तस्वीरें नीचे दी गई हैं-

Bhagat Chuni Lal taking oath of secrecy

Bhagat Chuni Lal taking oath of secrecy



Megh Politics



Sunday, March 11, 2012

Face the questions - सवालों का सामना करें

Chaudhary Sunder Singh to Meghs

चौधरी सुंदर सिंह ने एक बार मेघों को समझाते हुए कहा था, "न तो तुम्हारे पास ज़मीन है और न आसमान है. क्या तुम केवल 'भारत माता की जय' के नारे लगाने के लिए पैदा हुए हो?" 

शायद आप जानते हों कि आज़ादी से पहले स्यालकोट में श्री सुंदर सिहं के विरुद्ध भगत गोपीचंद ने चुनाव लड़ा था. गोपीचंद जी चुनाव हार गए थे. सुंदर सिंह जी चमार समुदाय से थे. वे कबीरपंथी डॉ. अंबेडकर की विचारधारा से सराबोर थे और संघर्ष का अर्थ जानते थे. उनकी बेटी सुश्री संतोष चौधरी होशियारपुर से एमपी हैं. 


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Wednesday, March 7, 2012

Megh unity Zindabad - मेघ एकता ज़िंदाबाद


Chuni Lal Bhagat soon after declaration of results
भगतश्री चुन्नी लाल (Bhagat Chuni Lal) पंजाब के 2012 के विधान सभा का चुनाव बीजेपी के टिकट जीत से गए हैं. बधाइयाँ. ये पिछली विधान सभा के उप सभापति (Deputy Speaker) रहे हैं.

यह जीत इन मायनों में महत्वपूर्ण है कि चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में मेघ भगत (Megh Bhagat) समुदाय ने अपनी एकता का जम कर प्रदर्शन करने का निर्णय लिया और ये बहुत बड़े मार्जिन से जीत गए. इन्हें 48201 वोट प्राप्त हुए जबकि इनकी विरोधी कांग्रेस की उम्मीदवार सुश्री सुमन केपी को 36858 वोट मिले (अंतर 11341). वोटों का अंतर बहुत कन्विंसिंग था. इससे कांग्रेस की आँखें खुलेंगी. बहुत बधाई. यही होना चाहिए था.

Chuni Lal Bhagat - चुन्नी लाल भगत

UP elections-2012 - The hidden truth - यूपी चुनाव-2012 - छिपी सच्चाई

देखा गया है कि कुछ वर्ष पहले तक चुनाव प्रत्याशी और नेता भाई पूरी धूर्तता के साथ घोषणा करते थे कि हम चुनाव में जाति और धर्म को महत्व नहीं देते और न ही इनमें विश्वास करते हैं. लेकिन चुनाव जीतने के लिए इन्हीं दोनों का खूब प्रयोग करते थे. खुशी है कि इस चुनाव के दौरान अधिकतर नेताओं और बुद्धिजीवियों ने स्वीकार किया कि चुनाव में धर्म और जाति की बहुत बड़ी भूमिका है. सच को स्वीकारने में लज्जा कैसी.

यूपी के चुनाव नतीजों की घोषणा के तुरत बाद एक जगह जश्न के दौरान हथियारों का प्रदर्शन किया गया और गोलियाँ चलाई गईं जिसमें एक बच्चे की मौत हो गई. दूसरी घटना में मीडिया कर्मियों को बंदी बनाया गया. गाँव में बसे दलितों और ब्राह्मणों के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.

यूपी के इस चुनाव में ओबीसी लहर को अप्रत्यक्ष सहायता देने वालों में अन्ना हज़ारे और स्वामी रामदेव (दोनों ओबीसी) भी रहे हैं. इन्होंने अपने प्रचार का केंद्र यूपी को बना कर रखा. अन्ना के पीछे एक जन आंदोलन की छवि थी और रामदेव ने भगवा राजनीति का बाना पहना था.

मनुस्मृति के दंड विधान को लागू करने का कार्य ओबीसी करते रहे हैं और आज भी करते हैं. दलितों को अब या तो कष्ट झेलने होंगे या उन्हें लामबंद हो कर इस मुसीबत का मुकाबला करना होगा. मायावती के कार्य को समझना होगा.

दबंग राजनीतिज्ञों ने दलितों के घर का चाहे न खाया हो परंतु मनुस्मृति के प्रावधानों के अनुसार दलितों के हिस्से का सब कुछ खाया है. बात राहुल की भी हो रही है.

सत्ताभोगी घराने से संबंधित यह युवक एक ऐसी राजनीतिक पार्टी से संबंध रखता है जिसने दलितों के लिए बनी योजनाओं को दलितों तक पहुँचाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. सारा बजट भ्रष्टाचारियों द्वारा बीच में ही सोख लिया जाता रहा. सिस्टम चुपचाप मुस्कराता रहा.

राहुल की सुरक्षा के मद्देनज़र उनके खाने आदि का बहुत ध्यान रखा जाता है. उसने जिस भोजन का भोग लगाया वह निश्चित रूप से दलित परिवार का नहीं था. हाँ उनके साथ बैठ कर खा लिया जिसके लिए दलित परिवार धन्य महसूस करता होगा. इन चुनाव परिणामों को देखते हुए बेहतर हो यदि केंद्र में बैठ कर राहुल दलितों के लिए बनी योजनाओं का पैसा उन तक पहुँचाने की व्यवस्था कर सके और उन्हें दलितपने तक पहुँचाने वाली व्यवस्था से निकालने का प्रबंध कर सके.

यह चुनाव बहुत कुछ कह गया है.

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Monday, March 5, 2012

Victims of pain killers - सिर दर्द की गोलियों का दूसरा शिकार


आप पूछना चाहेंगे कि मेघ राजनीति में सिर दर्द की गोली क्या कर रही है. यह इस लिए कि हाल ही में मेघ राजनीति में सक्रिय एक युवा सिर दर्द की गोलियों का शिकार हो गया.
श्री राजेंद्र गोल्डी
राजनीति सिर दर्द लाती है. कई कारणों से. एक कारण है बेआरामी और दूसरा भावनात्मक दबाव जो कई अन्य कारणों से हो सकता है. यह दर्द अधिकतर माइग्रेन (आधे सिर का दर्द) होता है. इसके और भी कई लक्षण हो सकते हैं. 04 मार्च, 2012 को श्री राजेंद्र गोल्डी की रस्म क्रिया के दौरान उनके एक नज़दीकी संबंधी से पूछा कि क्या वे सिर दर्द की गोलियाँ लेते थे तो उन्होंने बताया कि पिछले बीस वर्ष से वे ले रहे थे. प्रत्यक्षतः उन्हीं गोलियों के साइड इफेक्ट से या सिर दर्द का सही इलाज न होने से उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ, ऐसा प्रतीत होता है.
इससे पहले एक और उभरते हुए नेता श्री रोशन लाल (बीजेपी) भी ऐसे ही ब्रेन हेमरेज से चल बसे थे. मैंने स्वयं उन्हें सिर दर्द की गोलियाँ खाते देखा था.
यदि किसी सक्रिय कार्यकर्ता को ऐसा कष्ट होता है तो सलाह है कि ऐलोपैथिक गोलियाँ खाने के बजाय वे अच्छे होम्योपैथ की सलाह लें. यह बात दर्दे दिल से कह दी है.

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