Tuesday, October 30, 2012

Dalit Community (Today’s Valmikis) were mislead – दलित समुदाय (आज के वाल्मीकि) को गुमराह किया गया था



इसे पढ़ कर आपकी तीसरी आँख खुल जाएगी-

जब हम इतिहास का अवलोकन करते हेंतो 1925 से पहले हमें वाल्मीकि शब्द नहीं मिलता. सफाई कर्मचारियों और चूह्डों को हिंदू फोल्ड में बनाये रखने के उद्देश्य से उन्हें वाल्मीकि से जोड़ने और वाल्मीकि नाम देने की योजना बीस के दशक में आर्यसमाज ने बनाई थी. इस काम को जिस आर्यसमाजी पंडित ने अंजाम दिया थाउसका नाम अमीचंद शर्मा था. यह वही समय हैजब पूरे देश में दलित मुक्ति के आन्दोलन चल रहे थे. महाराष्ट्र में डा. आंबेडकर का हिंदू व्यवस्था के खिलाफ सत्याग्रहउत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द का आदि हिंदू आन्दोलन और पंजाब में मंगूराम मूंगोवालिया का आदधर्म आन्दोलन उस समय अपने चरम पर थे. पंजाब में दलित जातियां बहुत तेजी से आदधर्म स्वीकार कर रही थीं. आर्यसमाज ने इसी क्रांति को रोकने के लिए अमीचंद शर्मा को काम पर लगाया. योजना के तहत अमीचंद शर्मा ने सफाई कर्मचारियों के मोहल्लों में आना-जाना शुरू किया. उनकी कुछ समस्याओं को लेकर काम करना शुरू किया. शीघ्र ही वह उनके बीच घुल-मिल गया और उनका नेता बन गया. उसने उन्हें डा. आंबेडकरअछूतानन्द और मंगूराम के आंदोलनों के खिलाफ भडकाना शुरू किया. वे अनपढ़ और गरीब लोग उसके जाल में फँस गए. 1925 में अमीचंद शर्मा ने 'श्री वाल्मीकि प्रकाशनाम की किताब लिखीजिसमें उसने वाल्मीकि को उनका गुरु बताया और उन्हें वाल्मीकि का धर्म अपनाने को कहा. उसने उनके सामने वाल्मीकि धर्म की रूपरेखा भी रखी.

पूरा आलेख आप नीचे दिए लिंक से देख सकते हैं.

वाल्मीकि जयंती और दलित मुक्ति का प्रश्न

श्री वाल्मीकि प्रकाश

Sunday, October 28, 2012

Celebrate function of IPC (Indian Penal Code) - भारतीय दंड संहिता का उत्सव-


अक्तूबर माह, 1837 में मैकाले ने भारतीय दंड संहिता (IPC) का मसौदा तैयार किया था जिसने आगे चल कर दलितों को सुमति भार्गव की बनाई 'मनुस्मृति' के विनाशकारी कानून से बचाया. 

अक्तूबर 1835 में ही लॉर्ड मैकाले ने शिक्षा का कार्यवृत्त (1835)’ भारत को दिया जिसने निश्चय ही भारत को ऐसे रास्ते पर ला खड़ा किया है जहाँ से हम धरती के महानतम देश बनने राह पर निकल पड़े हैं.

यह दो कार्य मैकाले ने ऐसे किए जिनसे मनुवादी/ब्राह्मणवादी ढाँचे को बदलने में मदद मिली. यही कारण है कि मनुवादियों ने मैकाले और उसकी नीतियों के विरुद्ध जम कर ज़हर उगला है.



Megh Politics

Thursday, October 25, 2012

BAMCEF-2 – बामसेफ-2



कल 21-10-2012 को बामसेफ चंडीगढ़ यूनिट ने कॉमनवेल्थ यूथ प्रोग्राम, एशिया सेंटर, सैक्टर-12 के हाल में एक दिवसीय इतिहासात्मक और विचारधारात्मक प्रशिक्षण काडर कैंप (Historical and Ideological Training Cadre Camp) का आयोजन किया. इसमें भाग लेने का मौका मिला. इस प्रशिक्षण कैंप में मुख्य प्रशिक्षक और वक्ता मान्यवर अशोक बशोत्रा, सीनियर एडवोकेट (Mr. Ashok Bashotra, Sr. AdvocateHigh Court J&K) थे जो जम्मू से पधारे थे.

उनके अभिभाषण में बहुत-सी जानकारी थी. जिसमें से मैं दो बातों का यहाँ विशेष उल्लेख करना चाहता हूँ:-

1. किसी भी मनुष्य के लिए तीन चीज़ें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं. 'ज्ञान'- जिससे मनुष्य अपने समग्र जीवन को बेहतर बनाता है, 'हथियार'- जिससे वह अपने प्राणों की रक्षा करता है और 'संपत्ति'- जो उसके जीवन को गुणवत्ता प्रदान करती है. मनुस्मृति के प्रावधानों के द्वारा देश के मूलनिवासियों (SC/ST/OBC) से यह तीनों अधिकार छीन लिए गए.

2. तक्षशिला, नालंदा, उज्जैन और विक्रमशिला उस समय (सम्राट अशोक से लेकर बृहद्रथ तक) के विश्व विख्यात विश्वविद्यालय थे. सोते हुए बृहद्रथ की हत्या पुष्यमित्र शुंग नामक ब्राह्मण ने कर दी और सत्ता संभालने के बाद मूलनिवासियों की महान परंपराओं को समाप्त करने करने के लिए उसने चारों विश्वविद्यालयों और वहाँ सुरक्षित साहित्य को नष्ट करने के आदेश दे दिए. डेढ़ माह तक विश्वविद्यालय जलते रहे. छह माह तक वहाँ के पुस्तकालयों को जलाया गया. साठ हज़ार बौध प्राध्यापकों की हत्या की गई जो वहाँ सुरक्षित विज्ञान, दर्शन, धर्म, इतिहास, साहित्य आदि के परमविद्वान थे.

यही कारण है कि कभी मातृत्वप्रधान समाज रहे भारत की स्त्री जाति, शूद्र और दलित अपने जिस इतिहास को ढूँढते फिरते हैं वह नहीं मिलता.









   


Sunday, October 21, 2012

पलाश विश्वास की कलम से


असुरों के वंशज ही अपने पूर्वजों के नरसंहार के उत्सव में निष्णात!

भारत के राष्ट्रपति हिंदू हैं और कुलीन ब्राह्मण. उनके राष्ट्रपति बनने पर बांग्ला मीडिया ने इस पर बहुत जोर दिया. क्यों? राष्ट्रपति के हिंदुत्व पर दुनियाभर का मीडिया फोकस कर रहा है. अखबार नहीं निकल रहे हैं तो क्या, संवाददाताओं और कैमरामैन प्रणवमुखर्जी की पूजा कवर करने के लिए तैनात हैं. क्या यही धर्म निरपेक्ष भारत की सही छवि है? मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के तमाम सहयोगी पूजा उद्घाटन में व्यस्त हैं. मंत्री, सांसद, विधायक पूजा कमेटियों के कर्ता-धर्ता हैं. ऐसा पहली बार हो रहा है. उत्तरी बंगाल में आज भी असुरों के उत्तराधिकारी हैं. जो दुर्गोत्सव के दौरान अशौच पालन करते हैं. उनकी मौजूदगी साबित करती है कि महिषमर्दिनी दुर्गा का मिथक बहुत पुरातन नहीं है. राम कथा में दुर्गा के अकाल बोधन की चर्चा जरूर है, पर वहाँ  वे महिषासुर का वध करती नजर नहीं आतीं. जिस तरह सम्राट बृहद्रथ की हत्या के बाद पुष्यमित्र के राज काल में तमाम महाकाव्य और स्मृतियों की रचनी हुई, प्रतिक्रांति की जमीन तैयार करने के लिए, और जिस तरह इसे हजारों साल पुराने इतिहास की मान्यता दी गयी, कोई शक नहीं कि अनार्य प्रभाव वाले आर्यावर्त की सीमाओं से बाहर के तमाम शासकों के हिंदूकरण की प्रक्रिया को ही महिषासुरमर्दिनी का मिथक छीक उसी तरह बनाया गया, जैसे शक्तिपीठों के जरिये सभी लोकदेवियों को सती के अंश और सभी लोक देवताओं को भैरव बना दिया गया. वैसे भी बंगाल का नामकरण बंगासुर के नाम पर हुआ. बंगाल में दुर्गापूजा का प्रचलन सेन वंश के दौरान भी नहीं था. भारत माता के प्रतीक की तरह अनार्य भारत के आर्यकरण का यह मिथक निःसंदेह तेरहवीं सदी के बाद ही रचा गया होगा. जिसे बंगाल के सत्तावर्ग के लोगों ने बांगाली ब्राह्मण राष्ट्रीयता का प्रतीक बना दिया. विडंबना है कि बंगाल की गैरब्राह्मण अनार्य मूल के या फिर बौद्ध मूल के बहुसंख्यक लोगों ने अपने पूर्वजों के नरसंहार को अपना धर्म मान लिया. बुद्धमत में कोई ईश्वर नहीं है, बाकी धर्ममतों की तरह. बौद्ध विरासत वाले बंगाल में ईश्वर और अवतारों की पांत अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बनी, जो विभाजन के बाद जनसंख्या स्थानांतरण के बहाने अछूतों के बंगाल से निर्वासन के जरिये हुए ब्राह्मण वर्चस्व को सुनिश्चितकरने वाले जनसंख्या समायोजन के जरिये सत्तावर्ग के द्वारा लगातार मजबूत की जाती रहीं.

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी हर साल की तरह इस साल भी नवरात्रि के मौके पर पश्चिम बंगाल के बीरभूमि जिले के मिरीती गांव में मौजूद अपने पैतृक निवास जा रहे हैं. बीरभूमि के जिलाधिकारी ने जानकारी दी है कि मुखर्जी शनिवार को दोपहर में कोलकाता से 240 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद अपने गाँव हेलीकॉप्टर से पहुँचेंगे. तय कार्यक्रम के मुताबिक राष्ट्रपति 23 अक्टूबर तक अपने पैतृक गांव में रहेंगे. मुखर्जी अपने गांव में दुर्गापूजा में बतौर मुख्य पुजारी शामिल होंगे. प्रणब के करीबी लोग अंदाजा लगा रहे हैं कि शायद प्रणब खुद प्रोटोकॉल तोड़कर गांव वालों के बीच घुलेंगे मिलेंगे और पूजा करेंगे. प्रणब पश्चिम बंगाल के हैं और वहां दुर्गापूजा का अलग ही महत्वप है. बंगाल की जया भादुड़ी बच्च न भी हैं और वह भी मुंबई में बंगाली अंदाज में ही दुर्गापूजा मनाती हैं. लेकिन इस बार वह ऐसा नहीं कर पाएंगी.
तनिक इस पर भी गौर करें!

महिषमर्दिनी; बक्रेश्वरम्द्धण् अधि विकिपीडियाए एकः स्वतन्त्रविश्वविज्ञानकोशण् गम्यताम् अत्र रू पर्यटनम्ए अन्वेषणम्ण् महिषमर्दिनी ;बक्रेश्वरम्द्ध एतत् पीठं भारतस्य पश्चिमबङ्गालस्य बदहाममण्डले विद्यमानेषु शक्तिपीठेषु अन्यतमम्.

दुर्गा पार्वती का दूसरा नाम है. हिन्दुओं के शाक्त साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है; शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है. वेदों में तो दुर्गा का कोई ज़िक्र नहीं है, मगर उपनिषद में देवी उमा हैमवती; उमा, हिमालय की पुत्रीद्ध का वर्णन है. पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है. दुर्गा असल में शिव की पत्नी पार्वती का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था. इस तरह दुर्गा युद्ध की देवी हैं. देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं. मुख्य रूप उनका गौरी है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप. उनका सबसे भयानक रूप काली है, अर्थात काला रूप. विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं. कुछ दुर्गा मन्दिरों में पशुबलि भी चढ़ती है. भगवती दुर्गा की सवारी शेर है. उग्रचण्डी दुर्गा का एक नाम है. दक्ष ने अपने यज्ञ में सभी देवताओं को बलि दीए लेकिन शिव और सती को बलि नहीं दी. इससे क्रुद्ध होकर, अपमान का प्रतिकार करने के लिए इन्होंने उग्रचंडी के रूप में अपने पिता के यज्ञ का विध्वंस किया था. इनके हाथों की संख्या 18 मानी जाती है. आश्विन महीने में कृष्णपक्ष की नवमी दिन शाक्तमतावलंबी विशेष रूप से उग्रचंडी की पूजा करते हैं.

बाजार विरोधी दीदी के मां माटी मानुष राज में बाजार बम बम है और चहुं दिशाओं में धर्मध्वजा लहरा रहे हैं. नवजागरण के समय से बंगाल में विज्ञान और प्रगति की चर्चा जारी है. नवजागरण के मसीहा जमींदारवर्ग से थे या फिर अंग्रेजी हुकूमत के खासमखास. ज्ञान तब भी कुलीन तबके से बाहर के लोगों के लिए वर्जित था. औद्योगिक क्रांति और पाश्चात्य शिक्षा के असर में विज्ञान और प्रगति का दायरा भी इसी वर्ग तक सीमित रहा. जैसा कि पूंजी और एकाधिकारवादी वर्चस्व के लिए विज्ञान और वैज्ञानिक आविष्कार अनिवार्य है ताकि उत्पादन प्रणाली में श्रम और श्रमिक की भूमिका सीमाबद्ध या अंततः समाप्त कर दी जाये. पर पूंजी और बाजार के लिए ज्ञान और विज्ञान को भी सत्तावर्ग तक सीमित करना वर्गीय हितों के मद्देनजर अहम है. ईश्वर, धर्म और आध्यात्मिकता कार्य परिणाम के तर्क और स्वतंत्र चिंतन का निषेध करती हैं, जिससे विरोध, प्रतिरोध  या बदलाव की तमाम संभावना शून्य हो जाती है. जर्मनी से अमेरिका गये आइनस्टीन को भी धर्मसभा में जाकर यहूदी और ईसाई, दोनों किस्म के सत्तवर्ग के मुताबिक धर्म और विज्ञान के अंतर्संबंध की व्याख्या करते हुए वैज्ञानिक शोध, आविष्कार और ज्ञान के लिए अवैज्ञानिक, अलौकिक प्रेरणा की बात कहनी पड़ी. बंगाल में 35 साल के प्रगतिवादी वामपंथी शासन दरअसल बहुजनों, निनानबे फीसदी जनता के बहिष्कार के सिद्धांत के मुताबिक ही जारी रहा. साम्यवाद की वैश्विक दृष्टि बंगाली ब्राह्मणवाद के माफिक बदल दी जाती रही. वाममोर्चा की सरकार ब्राह्मणमोर्चा बनकर रह गयी. जो दुर्गोत्सव सामंतों और जमीदारों की कुलदेवियों की उपासना तक सीमाबद्ध था, प्रजाजनों पर अपने उत्कर्ष साबित करने काए वह सामंतों के अवसान और स्वदेशी आंदोलन के जरिये सार्वजनिक ही नहीं हो गया, क्रमशः बंगीय और भारतीय हिंदू राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया. वाम शासन ने इसपर सांस्कृतिक मुलम्मा चढ़ाते हुए बंकिम की भारत माता और वंदेमातरम के हिंदुत्व का स्थानापन्न बना दिया. ममता राज में इसी बंगीय वर्चस्ववादी परंपरा की उत्कट अभिव्यक्ति देखी जा रही है जब दुर्गोत्सव के दरम्यान लगातार दस दिनों तक सरकारी दफ्तर बंद रहेंगे. सूचना कर्फ्यू के तहत चार दिनों के लिए कोई अखबार नहीं छपेगा और टीवी पर चौबीसों घंटा पूजा के बहाने बाजार का जयगान!

इतिहास की चर्चा करने वालों को बखूबी मालूम होगा कि वैदिकी सभ्यता का बंगाल में कोई असर नहीं रहा है और न यहां वर्ण व्यवस्था का वजूद रहा है. ग्यारहवीं सदी तक बंगाल में बुद्धयुग रहा. सातवीं शताब्दी में गौड़ के राजा शशांक शाक्त थे. शाक्त और शैव दो मत प्राचीन बंगाल में प्रचलित थे, जो लोकधर्म के पर्याय हैं, और जिनका बाद में हिंदुत्वकरण है. डिसकवरी आफ इंडिया में नेहरू ने भी वर्ण व्यवस्था को आर्यों की अहिंसक रक्तहीन क्रांति माना और तमाम इतिहासकार इसके जरिये भारत के एकीकरण की बात करते हैं. वामपंथी नेता कामरेड नंबूदरीपाद वर्ण व्यवस्था को आर्य सभ्यता की महान देन बताते थे. बंगाल में पाल वंश के पतन के बाद कन्नौज के ब्राह्मणों को बुलाकर सेनवंश के कर्नाटकी मूल के  राजा बल्लाल सेन ने ब्राह्मणी कर्मकांड और पद्धतियां लागू कीं. पर उनका शासनकाल खत्म होते न होते उनके पुत्र लक्ष्मण सेन ने पठानों के आगे खुद को पराजित मानते हुए गौड़ छोड़कर भाग निकले. तो इस हिसाब से ब्राह्मणी तंत्र लागू करने के लिए बल्लालसेन के कार्यकाल के अलावा बाकी कुछ नहीं बचता. पठानों और मुगलों के शासनकाल में ब्राह्मण सत्ता वर्ग में शामिल होने की कवावद जरूर करते रहे. बंगाल में जो धर्मांतरण हुआ जाहिर है, वह बौद्ध जन समुदायों का ही हुआ. जो हिंदू हुए, वे सीधे अछूत बना दिये गये, सेन वंश के दौरान. मुसलमान शासनकाल में इन अछूतों ने और जो बौद्ध हिंदुत्व को अपनाकर अछूत बनने को तैयार न थे, उन्होंने व्यापक पैमाने पर इस्लाम को कबूल कर लिया. हिंदू कर्मकांड के अधिष्ठाता विष्मु का तो मुसलमानों के आने से पहले नामोनिशान न था. इस्लामी शासनकाल में पांच सौ साल पहले चैतन्य महाप्रभु के जरिए वैष्णव मत का प्रचलन हुआ और उनके खास अनुयायी नित्यानंद ने बंगाल की गैर हिंदू जनताका वैष्णवीकरण किया. बंगाल ही नहीं, उत्तरप्रदेश, बिहार और पंजाब को छोड़ कर बाकी भारत में तेरहवीं सदी से पहले वैदिकी सभ्यता का कोई खास असर नहीं था. विंध्य और अरावली के पार स्थानीय आदिवासी शासकों का क्षत्रियकरण के जरिए हिंदुत्व का परचम लहराया गया. लेकिन पूर्व और मध्य भारत में सत्रहवीं सदी तक अनार्य या फिर अछूत या पिछड़े शासकों का राज है. इसी अवधि को तम युग कहते हैं. जब महाराष्ट्र के जाधव शासकों और बंगाल के पाल राजाओं तक मैत्री संबंध थे. जब चर्या पद के जरिये भारतीय भाषाएं आकार ले रही थीं.

आलोकसज्जा की आड़ में अंधकार के इस उत्सव में हम भी चार दिनों तक खामोश रहने को विवश हैं. घर का कम्प्यूटर खराब है और इन चार दिनों में बाहर जाकर काम करने के रास्ते बंद हैं. कहीं कुछ भी हो जाये, हम अपना मतामत दर्ज नहीं कर सकते. वैसे भी बंगाल में मीडिया को बाकी देश की सूचना देने की आदत नहीं है. नीति निर्धारण की किसी प्रक्रिया के बारे में पाठकों को अवगत कराने की जवाबदेही नहीं है. अर्थ व्यवस्था के खेल को बेनकाब करने के बजाय आर्थिक सुधारों के अंध समर्थन अंध राष्ट्रवाद के मार्फत करते रहने की अनवरत निरंतरता है. पार्टीबद्ध प्रतिबद्धता के साथ. अखबार छपें, न छपें, इससे शायद कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. कम से कम चार दिनों तक बलात्कार, अपराध और राजनीतिक हिंसा की खबरों से निजात जरूर मिल जायेगी. दीदी खुद इन खबरों से परेशान हैं और जब तब मीडिया को नसीहत देते हुए धमकाती रहती हैं. उनका बस चले तो सरकार की आलोचना के तमाम उत्स ही खत्म कर दिये जायें. मजे की बात है किअखबारों के दफ्तरों में अवकाश नहीं होगा. पर संस्करण नहीं निकलेगा. पत्रकारों/ गैरपत्रकारों को आकस्मिक, अस्वस्थता या फिर अर्जित अवकाश लेकर सेवा की निरंतरता बनाये रखनी होगी. प्रबंधन के मुताबिक वे अखबार बंद नहीं कर रहे हैं, बल्कि हाकरों ने अखबार उठाने से मना कर दिया है. जाहिर है कि इस पर ज्यादा बहस करने की गुंजाइश नहीं है कि अचानक हाकर दुर्गोत्सव के दौरान अखबार उठाने से मना क्यों कर रहे हैं और उनके पीछे कौन सी राजनीति है. पत्रकारों और गैरपत्रकारों के लिए वेतन बोर्ड की सिफारिशें लागू करने के लिए दीदी दिल्ली में आवाज बुलंद करने से पीछे नहीं हटतीं. पर राज्य में बाहैसियत मुख्यमंत्री मीडिया कर्मचारियों के हित में उन्होंने कोई कदम उठाया हो या वेतनमान लागू करने के लिए अखबार मालिकों से कहा हो, ऐसा हमें नहीं मालूम है. जबकि अनेक अखबारों के कर्णधार उनके खासमखास हैं और कई संपादक/मालिक तो उनके सांसद भी हैं. कम से कम उन मीडिया हाउस में कर्मचरियों के लिए हालात बेहतर बनाने में उन्हें कोई रोक नहीं सकता.

-पलाश विश्वास





Sunday, October 14, 2012

Matua Movement - मतुआ आंदोलन



दिनांक 23-09-2012 को बामसेफ (मेश्राम) के एक दिवसीय कार्यक्रम के समय उनकी एक पत्रिका 
बहुजन भारत का मार्च 2012 का विशेषांक खरीद लाया था. 22वें बामसेफ और राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ के संयुक्त राष्ट्रीय अधिवेशन में विभिन्न राज्यों से आए प्रतिनिधियों द्वारा प्रस्तुत आलेखों का सार इसमें दिया गया है. यह अधिवेशन गुलबर्गा (कर्नाटक) में 24 दिसंबर से 28 दिसंबर 2011 तक आयोजित किया गया था.

उक्त पत्रिका से मतुआ धर्म (आंदोलन) की जानकारी मिली.

मतुआ आंदोलन

आज से 200 वर्ष पूर्व मतुआ धर्म की स्थापना नमोशूद्र हरिचंद (हरिचाँद) ने सन् 1812 में की थी. इस धार्मिक आंदोलन का एक ही संदेश था कि खुद खाओ या न खाओ, लेकिन बच्चों को शिक्षा दो. इस आंदोलन ने बंगाल में अपनी एक अलग परंपरा बनाई. जब ये लोग घरों से निकलते थे तो हाथों में क्रांति का प्रतीक लंबा लाल झंडा लेकर निकलते थे और साथ में डंका बजाते चलते थे. इनके डंके की आवाज़ से ब्राह्मण बहुत चिढ़ते थे.

हरिचंद का जन्म फरीदपुर नामक गाँव में हुआ था जो अब बंग्लादेश में है. उन्होंने लोगों को कबीर की भाँति समझाया कि वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों, गीता महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों पर विश्वास न करना. अपनी बुद्धि और सोच-समझ से अपना रास्ता बनाना.

बंगाल की परंपरा के अनुसार हरिचंद-गुरुचंद (पिता-पुत्र) को सम्मानपूर्वक ठाकुर की उपाधि दी गई. यह उपाधि समाज हित में कार्य करने वालों को दी जाती है. (रवींद्रनाथ ठाकुर साहित्य का नोबल पुरस्कार पाने वाले भारत के प्रथम साहित्यकार थे और वे दलित जाति से थे. हरिचंद-गुरुचंद की भाँति वे भी पीरल्ली जाति के थे जो घृणा के निशाने पर रही है और उन्हें जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था.)

हरिचंद-गुरुचंद नामक इन दोनों ठाकुरों ने बंगाल, बिहार, असम और ओडिशा में डेढ़ हज़ार प्राइमरी स्कूल खोल कर ब्राह्मणों को चुनौती दी. इसके बाद आठ से अधिक उच्च विद्यालय (हाई स्कूल) खोले गए. शिक्षा देने के साथ उन्होंने चांडाल आंदोलन, नील आंदोलन और भूमि आंदोलन का भी नेतृत्व किया. सन् 1865-66 में  हरिचंद ने ब्रिटिश को साथ लेकर ज़मींदारों के विरुद्ध भूमि आंदोलन किया था. इन आंदोलनों को ब्राह्मण इतिहासकारों ने इतिहास से दूर रखा. हरिचंद और गुरुचंद ने उन क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध भी किसान आंदोलन चलाया जहाँ अंग्रेज़ किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे जिससे उनकी ज़मीन तबाह हो जाती थी.

हरिचंद ठाकुर ने जब स्कूल बनवाए तब सबसे पहले उन्होंने गोशाला में पढ़ाने की व्यवस्था की. गाय चरने चली जातीं तो जगह को साफ करके स्कूल में परिवर्तित कर दिया जाता. उन्होंने 1500 से अधिक खोले.  हरिचंद के बाद इस कार्य का बीड़ा उनके सुपुत्र गुरुचंद ने उठाया. आश्चर्य की बात है कि शिक्षा के क्षेत्र में हुए इतने बड़े आंदोलन को पाठ्यक्रम में जगह नहीं दी गई.

महात्मा फुले और डॉ. अंबेडकर ने ब्राह्मणों द्वारा लक्षित स्वतंत्रता आंदोलन को मूलनिवासियों का स्वतंत्रता आंदोलन कभी नहीं माना. गुरुचंद का दृष्टिकोण भी यही था. एम. के. गाँधी ने सी.आर. दास को गुरुचाँद के पास संदेश भिजवाया था कि वे गाँधी द्वारा चलाए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन में साथ दें. गुरुचंद ने उत्तर भिजवाया कि यह आंदोलन हमारा नहीं है. पहले अस्पृश्यता समाप्त करो फिर साथ आएँगे. सी.आर. दास को खाली हाथ लौटना पड़ा.

लगभग उसी समय आस्ट्रेलिया से ईसाई धर्म का प्रचारक फादर मीड भारत आया था. उसे जानकारी मिली कि ब्राह्मण धर्म (मनुवाद) के विरोध में गुरुचंद ठाकुर आंदोलन कर रहे हैं. फादर मीड ने गुरुचंद ठाकुर से संपर्क साधा. गुरुचंद ठाकुर इस बात पर दृढ़ रहे कि पहले दलितों की शिक्षा का प्रबंध किया जाए. बाद में लोग स्वयं निर्णय करेंगे की उन्हें क्या करना है. उनकी बात से प्रभावित हो कर फादर मीड गुरुचंद के आंदोलन से जुड़ गया.

ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खड़े हुए इस आंदोलन को ब्राह्मणों ने भक्ति आंदोलन का नाम दे दिया. आज बंगाल में हरिचंद-गुरुचंद के नाम पर हज़ारों संगठन हैं लेकिन वे नामों में बँटे हुए हैं. इस ठाकुर द्वय के सामाजिक आंदोलन को धर्म का रूप देकर ब्राह्मण उस पर काबिज़ हो गए और धर्म की दूकानें खोल ली. आगे चल कर ब्रह्मणों ने हरिचंद-गुरुचंद को भगवान घोषित करके मंदिरों ने बिठा दिया और उन्हें भगवान विश्वासी कह दिया. इस प्रकार आंदोलन के वास्तविक कार्य को धर्म का नाम दे कर वास्तविकता को पीछे रख दिया गया.
हरिचंद अनपढ़ अवश्य थे लेकिन अशिक्षित नहीं थे. उन्होंने हरिलीलामृत नामक ग्रंथ की रचना करके उसे प्रकाशित कराया. मतुआ धर्म और बौध धर्म का दर्शन एक ही है. मतुआ आंदोलन को नमोशूद्र आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है. अपने शुद्ध स्वरूप में यह भारत के मूलनिवासियों का स्वतंत्रता आंदोलन रहा.

ऐसा माना जाता है कि यह हरिचंद-गुरुचंद के आंदोलन का ही प्रभाव था कि उस बंग्लाभाषी क्षेत्र में योगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंद बिहारी मलिक ने अपूर्व त्याग करके डॉ. भीमराव अंबेडकर को अविभाजित बंगाल से चुनाव जितवा कर संविधान सभा में भेजा था जबकि वे महाराष्ट्र से चुनाव हार चुके थे.

इतिहास के हाशिए से बाहर रखा गया मतुआ आंदोलन अपनी सही पहचान के साथ लौट आया है.

बंगाल में मतुआ धर्म मानने वालों की संख्या 1.2 करोड़ है जबकि देश भर में इनकी संख्या 4 करोड़ के लगभग है.

(Note: यह आलेख बामसेफ की उक्त पत्रिका में छपे सर्वमान्यवर जगदीश राय, शैलेन गोस्वामी, के.एल.विश्वास, ए.टी. बाला और शरद चंद्र राय के आलेखों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया है.)


मतुआ आंदोलन से संबंधित अन्य उपयोगी लिंक-






Why there is no unity in Meghs-3 - मेघों में एकता क्यों नहीं होती-3



मेघों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इनके समुदाय का अपना कोई एक धर्म नहीं है. वे इधर-उधर धार्मिक सहारा ढूँढते-ढूँढते विभिन्न धर्मों में बँट गए. 

सामाजिक संघर्ष के लिए न उनके पास पर्याप्त शिक्षा है, न एकता और न ही इच्छा शक्ति. संघर्ष के रास्ते पर दो कदम चलते ही उन्हें निराशा घेरने लगती है और ईश्वर की याद सताने लगती है. वे नहीं जानते कि ईश्वर नाम के आइडिया का प्रयोग बिरादरी के विकास के लिए कैसे किया जाता है.

मेघ समुदाय के लोग एक धर्म के अनुयायी नहीं बन सके. जिसने जिधर आकर्षित किया उधर हो लिए. उनमें एकाधिक धर्मों के प्रति झुकाव पैदा हो गया. धर्म (अच्छे गुण) व्यक्ति की नितांत अपनी चीज़ होती है. लेकिन एक आम पढ़ा-लिखा मेघ पता नहीं क्यों अपने बाहरी धर्म और इष्ट के प्रति अत्यधिक मोह में फँस जाता है. अपने गुरु को सबसे ऊपर मानता है और बाकी गुरुओं और उनके चेलों को आधे-अधूरे ज्ञान वाला मानता है. एक तरह से वह खुद को सर्वश्रेष्ठ समझता है और अन्य के साथ मिल कर चलने में उसे कठिनाई होती है. 

यही बात राजनीतिक दलों के मामले में भी लागू होती है. मेघ किसी के हो गए तो हो गए. कुछ कांग्रेस से चिपट गए तो कुछ बीजेपी से लिपट गए. बिरादरी में एकता और राजनीतिक जागरूकता की कमी है.

सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष का रास्ता सब के साथ मिल कर चलने वाला होता है, अन्यथा इस बात का डर रहता है कि संघर्ष में लगी मानव शक्ति और उसकी भावना कहीं बिखर न जाए. शिक्षित समुदायों के लोग राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के लिए धर्म, गोत्र, गुरु, देवी-देवता, माता, आदि को भुला कर अपने संसाधन लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास में झोंक देते हैं. वे जानते हैं कि सांसारिक प्रगति के लिए जो कार्य राजनीति कर सकती है वह ईश्वर भी नहीं कर सकता. इस दृष्टि से मेघ समुदाय को अभी बहुत कुछ सीखना है.

पिछले दिनों मेघों की संगठनात्मक गतिविधियाँ बढ़ी हैं जो एक अच्छा संकेत दे गई हैं.

सामाजिक और धार्मिक क्रांति के बाद ही राजनीतिक क्रांति आती है.- डॉ. अंबेडकर

Monday, October 8, 2012

Ekta Parishad leads Indian aboriginals to Delhi– एकता परिषद के नेतृत्व में आदिवासियों का दिल्ली कूच - 2012



भारत के आदिवासियों/मूलनिवासियों का इस देश की ज़मीन पर अधिकार सदियों से क्रमवार तरीके से समाप्त कर दिया गया है. आज भी उनके जंगल, जल और ज़मीन पर कोई भी ठेकेदार अधिकार जमा लेता है. ठेकेदार को पुलिस, नौकरशाही और मीडिया का और कई अन्य एजेंसियों समर्थन मिल जाता है. आदिवासियों की ग़रीबी दूर न होने का यही मुख्य कारण है. सरकार पूरी तरह से गंभीर नहीं है कि इन मूलनिवासियों के अधिकारों की रक्षा न्यायपूर्वक की जाए. दशाब्दियों से वह अपनी मजबूरियाँ गिनवाती आ रही है. इस बीच नक्सलवाद बढ़ा है.


अब देश भर के आदिवासियों ने एकता परिषद के झंडे तले ग्वालियर से दिल्ली की ओर कूच किया है जिसने भारत सरकार को परेशानी में डाल दिया है. आगे चल कर यह परेशानी बढ़ सकती है. इस कूच का नेतृत्व पी.वी. राजगोपाल कर रहे हैं. अच्छी बात यह है कि यह आंदोलन नक्सली हिंसा जैसे तत्त्व से मुक्त है.






Saturday, October 6, 2012

What’s the meaning of being a Hindu - हिंदू बनने का मतलब क्या है


दिलीप मंडल का फैन हूँ. इनके छोटे-छोटे प्रश्न दिमाग़ में हलचल पैदा करते हैं. अभी हाल ही में फेसबुक पर उन्होंने लिखा है :-

वह प्रश्न, जो इतिहास की परीक्षा में मिस प्रिंट होकर छप गया - "अगर दलितों और आदिवासियों को हिंदू न बनाया/बताया गया होता तो अविभाजित भारत के ज्यादातर हिस्सों में मुसलमान सबसे ज्यादा आबादी वाला समूह होते. तमाम तरह के उद्धार आंदोलनों की जड़ यहीं है. 1931 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर इस तथ्य (या झूठ) की पुष्टि या खंडन कीजिए. (20 नंबर)

तत्क्षण मुझे अछूतोद्धार के तहत 1902 में मेघों के शुद्धिकरण का प्रकरण याद हो आया जिससे स्यालकोट के पास बसाए गए आर्यनगर के आसपास के इलाकों में मुसलमानों की संख्या 51% से घट कर 49% रह गई थी. अन्य स्थानों पर भी ऐसा हुआ. हिंदुओं की संख्या को बढ़ाने की यह प्रक्रिया काफी देर से चल रही थी. दलितों को इस चाल की भनक नहीं थी और मुसलमान भी लगभग सोए हुए थे. ब्राह्मणवाद अपनी चाल चल गया और आज हिंदू के तौर पर सब का लीडर बना बैठा है. वह दलितों (अनसूचित जातियों, जनजातियों और ओबीसी) की संख्या के आधार पर मूलनिवासियों के इस देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की तैयारी में लगा है. इससे मनुस्मृति, आदि सहित ऐसे हिंदू-साहित्य को फिर से प्रचारित करने की कोशिश की जाएगी जो देश के मूलनिवासियों को जातियों के आधार पर बाँटने का कार्य करता है.

इसलिए मूलनिवासियों को सचेत रहना होगा. जागो.