दिनांक 23-09-2012 को बामसेफ (मेश्राम) के एक दिवसीय कार्यक्रम के समय उनकी एक पत्रिका ‘बहुजन भारत’ का मार्च 2012 का विशेषांक खरीद लाया था. 22वें बामसेफ और राष्ट्रीय मूलनिवासी संघ के संयुक्त राष्ट्रीय अधिवेशन में विभिन्न राज्यों से आए प्रतिनिधियों द्वारा प्रस्तुत आलेखों का सार इसमें दिया गया है. यह अधिवेशन गुलबर्गा (कर्नाटक) में 24 दिसंबर से 28 दिसंबर 2011 तक आयोजित किया गया था.
उक्त पत्रिका से मतुआ धर्म (आंदोलन) की जानकारी मिली.
मतुआ आंदोलन
आज से 200 वर्ष पूर्व मतुआ धर्म की स्थापना नमोशूद्र हरिचंद (हरिचाँद) ने सन् 1812 में की थी. इस धार्मिक आंदोलन का एक ही संदेश था कि खुद खाओ या न खाओ, लेकिन बच्चों को शिक्षा दो. इस आंदोलन ने बंगाल में अपनी एक अलग परंपरा बनाई. जब ये लोग घरों से निकलते थे तो हाथों में क्रांति का प्रतीक लंबा लाल झंडा लेकर निकलते थे और साथ में डंका बजाते चलते थे. इनके डंके की आवाज़ से ब्राह्मण बहुत चिढ़ते थे.
हरिचंद का जन्म फरीदपुर नामक गाँव में हुआ था जो अब बंग्लादेश में है. उन्होंने लोगों को कबीर की भाँति समझाया कि वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों, पुराणों, गीता महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों पर विश्वास न करना. अपनी बुद्धि और सोच-समझ से अपना रास्ता बनाना.
बंगाल की परंपरा के अनुसार हरिचंद-गुरुचंद (पिता-पुत्र) को सम्मानपूर्वक ठाकुर की उपाधि दी गई. यह उपाधि समाज हित में कार्य करने वालों को दी जाती है. (रवींद्रनाथ ठाकुर साहित्य का नोबल पुरस्कार पाने वाले भारत के प्रथम साहित्यकार थे और वे दलित जाति से थे. हरिचंद-गुरुचंद की भाँति वे भी पीरल्ली जाति के थे जो घृणा के निशाने पर रही है और उन्हें जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था.)
हरिचंद-गुरुचंद नामक इन दोनों ठाकुरों ने बंगाल, बिहार, असम और ओडिशा में डेढ़ हज़ार प्राइमरी स्कूल खोल कर ब्राह्मणों को चुनौती दी. इसके बाद आठ से अधिक उच्च विद्यालय (हाई स्कूल) खोले गए. शिक्षा देने के साथ उन्होंने चांडाल आंदोलन, नील आंदोलन और भूमि आंदोलन का भी नेतृत्व किया. सन् 1865-66 में हरिचंद ने ब्रिटिश को साथ लेकर ज़मींदारों के विरुद्ध भूमि आंदोलन किया था. इन आंदोलनों को ब्राह्मण इतिहासकारों ने इतिहास से दूर रखा. हरिचंद और गुरुचंद ने उन क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध भी किसान आंदोलन चलाया जहाँ अंग्रेज़ किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे जिससे उनकी ज़मीन तबाह हो जाती थी.
हरिचंद-गुरुचंद नामक इन दोनों ठाकुरों ने बंगाल, बिहार, असम और ओडिशा में डेढ़ हज़ार प्राइमरी स्कूल खोल कर ब्राह्मणों को चुनौती दी. इसके बाद आठ से अधिक उच्च विद्यालय (हाई स्कूल) खोले गए. शिक्षा देने के साथ उन्होंने चांडाल आंदोलन, नील आंदोलन और भूमि आंदोलन का भी नेतृत्व किया. सन् 1865-66 में हरिचंद ने ब्रिटिश को साथ लेकर ज़मींदारों के विरुद्ध भूमि आंदोलन किया था. इन आंदोलनों को ब्राह्मण इतिहासकारों ने इतिहास से दूर रखा. हरिचंद और गुरुचंद ने उन क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध भी किसान आंदोलन चलाया जहाँ अंग्रेज़ किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे जिससे उनकी ज़मीन तबाह हो जाती थी.
हरिचंद ठाकुर ने जब स्कूल बनवाए तब सबसे पहले उन्होंने गोशाला में पढ़ाने की व्यवस्था की. गाय चरने चली जातीं तो जगह को साफ करके स्कूल में परिवर्तित कर दिया जाता. उन्होंने 1500 से अधिक खोले. हरिचंद के बाद इस कार्य का बीड़ा उनके सुपुत्र गुरुचंद ने उठाया. आश्चर्य की बात है कि शिक्षा के क्षेत्र में हुए इतने बड़े आंदोलन को पाठ्यक्रम में जगह नहीं दी गई.
महात्मा फुले और डॉ. अंबेडकर ने ब्राह्मणों द्वारा लक्षित स्वतंत्रता आंदोलन को मूलनिवासियों का स्वतंत्रता आंदोलन कभी नहीं माना. गुरुचंद का दृष्टिकोण भी यही था. एम. के. गाँधी ने सी.आर. दास को गुरुचाँद के पास संदेश भिजवाया था कि वे गाँधी द्वारा चलाए जा रहे स्वतंत्रता आंदोलन में साथ दें. गुरुचंद ने उत्तर भिजवाया कि यह आंदोलन हमारा नहीं है. पहले अस्पृश्यता समाप्त करो फिर साथ आएँगे. सी.आर. दास को खाली हाथ लौटना पड़ा.
लगभग उसी समय आस्ट्रेलिया से ईसाई धर्म का प्रचारक फादर मीड भारत आया था. उसे जानकारी मिली कि ब्राह्मण धर्म (मनुवाद) के विरोध में गुरुचंद ठाकुर आंदोलन कर रहे हैं. फादर मीड ने गुरुचंद ठाकुर से संपर्क साधा. गुरुचंद ठाकुर इस बात पर दृढ़ रहे कि पहले दलितों की शिक्षा का प्रबंध किया जाए. बाद में लोग स्वयं निर्णय करेंगे की उन्हें क्या करना है. उनकी बात से प्रभावित हो कर फादर मीड गुरुचंद के आंदोलन से जुड़ गया.
ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खड़े हुए इस आंदोलन को ब्राह्मणों ने ‘भक्ति आंदोलन’ का नाम दे दिया. आज बंगाल में हरिचंद-गुरुचंद के नाम पर हज़ारों संगठन हैं लेकिन वे नामों में बँटे हुए हैं. इस ठाकुर द्वय के सामाजिक आंदोलन को धर्म का रूप देकर ब्राह्मण उस पर काबिज़ हो गए और धर्म की दूकानें खोल ली. आगे चल कर ब्रह्मणों ने हरिचंद-गुरुचंद को भगवान घोषित करके मंदिरों ने बिठा दिया और उन्हें ‘भगवान विश्वासी’ कह दिया. इस प्रकार आंदोलन के वास्तविक कार्य को धर्म का नाम दे कर वास्तविकता को पीछे रख दिया गया.
हरिचंद अनपढ़ अवश्य थे लेकिन अशिक्षित नहीं थे. उन्होंने ‘हरिलीलामृत’ नामक ग्रंथ की रचना करके उसे प्रकाशित कराया. ‘मतुआ धर्म’ और ‘बौध धर्म’ का दर्शन एक ही है. मतुआ आंदोलन को नमोशूद्र आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है. अपने शुद्ध स्वरूप में यह भारत के मूलनिवासियों का स्वतंत्रता आंदोलन रहा.
ऐसा माना जाता है कि यह हरिचंद-गुरुचंद के आंदोलन का ही प्रभाव था कि उस बंग्लाभाषी क्षेत्र में योगेंद्रनाथ मंडल और मुकुंद बिहारी मलिक ने अपूर्व त्याग करके डॉ. भीमराव अंबेडकर को अविभाजित बंगाल से चुनाव जितवा कर संविधान सभा में भेजा था जबकि वे महाराष्ट्र से चुनाव हार चुके थे.
इतिहास के हाशिए से बाहर रखा गया ‘मतुआ आंदोलन’ अपनी सही पहचान के साथ लौट आया है.
बंगाल में ‘मतुआ धर्म’ मानने वालों की संख्या 1.2 करोड़ है जबकि देश भर में इनकी संख्या 4 करोड़ के लगभग है.
(Note: यह आलेख बामसेफ की उक्त पत्रिका में छपे सर्वमान्यवर जगदीश राय, शैलेन गोस्वामी, के.एल.विश्वास, ए.टी. बाला और शरद चंद्र राय के आलेखों से प्राप्त जानकारी के आधार पर लिखा गया है.)
मतुआ आंदोलन से संबंधित अन्य उपयोगी लिंक-
No comments:
Post a Comment