देखा
गया है कि कुछ वर्ष पहले तक चुनाव प्रत्याशी और नेता भाई पूरी धूर्तता के साथ
घोषणा करते थे कि हम चुनाव में जाति और धर्म को महत्व नहीं देते और न ही इनमें
विश्वास करते हैं. लेकिन चुनाव जीतने के लिए इन्हीं दोनों का खूब प्रयोग करते थे.
खुशी है कि इस चुनाव के दौरान अधिकतर नेताओं और बुद्धिजीवियों ने स्वीकार किया कि
चुनाव में धर्म और जाति की बहुत बड़ी भूमिका है. सच को स्वीकारने में लज्जा कैसी.
यूपी
के चुनाव नतीजों की घोषणा के तुरत बाद एक जगह जश्न के दौरान हथियारों का प्रदर्शन
किया गया और गोलियाँ चलाई गईं जिसमें एक बच्चे की मौत हो गई. दूसरी घटना में
मीडिया कर्मियों को बंदी बनाया गया. गाँव में बसे दलितों और ब्राह्मणों के लिए यह
शुभ संकेत नहीं है.
यूपी
के इस चुनाव में ओबीसी लहर को अप्रत्यक्ष सहायता देने वालों में अन्ना हज़ारे और
स्वामी रामदेव (दोनों ओबीसी) भी रहे हैं. इन्होंने अपने प्रचार का केंद्र यूपी को
बना कर रखा. अन्ना के पीछे एक जन आंदोलन की छवि थी और रामदेव ने भगवा राजनीति का
बाना पहना था.
मनुस्मृति
के दंड विधान को लागू करने का कार्य ओबीसी करते रहे हैं और आज भी करते हैं. दलितों
को अब या तो कष्ट झेलने होंगे या उन्हें लामबंद हो कर इस मुसीबत का मुकाबला करना
होगा. मायावती के कार्य को समझना होगा.
दबंग
राजनीतिज्ञों ने दलितों के घर का चाहे न खाया हो परंतु मनुस्मृति के प्रावधानों के
अनुसार दलितों के हिस्से का सब कुछ खाया है. बात राहुल की भी हो रही है.
सत्ताभोगी
घराने से संबंधित यह युवक एक ऐसी राजनीतिक पार्टी से संबंध रखता है जिसने दलितों
के लिए बनी योजनाओं को दलितों तक पहुँचाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया.
सारा बजट भ्रष्टाचारियों द्वारा बीच में ही सोख लिया जाता रहा. सिस्टम चुपचाप
मुस्कराता रहा.
राहुल
की सुरक्षा के मद्देनज़र उनके खाने आदि का बहुत ध्यान रखा जाता है. उसने जिस भोजन
का भोग लगाया वह निश्चित रूप से दलित परिवार का नहीं था. हाँ उनके साथ बैठ कर खा
लिया जिसके लिए दलित परिवार धन्य महसूस करता होगा. इन चुनाव परिणामों को देखते हुए
बेहतर हो यदि केंद्र में बैठ कर राहुल दलितों के लिए बनी योजनाओं का पैसा उन तक
पहुँचाने की व्यवस्था कर सके और उन्हें दलितपने तक पहुँचाने वाली व्यवस्था से
निकालने का प्रबंध कर सके.
Megh Politics
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