कानून का विशेषज्ञ
नहीं हूँ लेकिन भारत के एक नागरिक को राष्ट्र पर हमले की परिभाषा के बारे में जो जानना
चाहिए उसके बारे में जो जानता हूँ उसके आधार पर कुछ कहने का अधिकार है.
किसी सरकारी सेवक या
सरकारी संपत्ति को जानबूझ कर हानि पहुँचाने का कार्य राष्ट्र पर हमले की परिभाषा के अंतर्गत आता है.
मुख्यमंत्री की हत्या इसी के तहत है.
कई वर्ष पूर्व पंजाब
के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के समय की परिस्थितियाँ आतंकवाद की और स्वर्णमंदिर
को अलगाववादियों के कब्ज़े से मुक्त कराने की थीं जिसके क्रम में इंदिरा गाँधी और
बेअंत सिंह की हत्या हुई. कुछ जुनूनी मृत्यु के बाद, कुछ फाँसी के बाद शहीद घोषित हुए. बलवंत सिंह
राजोआणा 'जीवित शहीद' है जिसकी फाँसी की सज़ा को माफ़ कराने की कोशिश बहुत बड़े स्तर
पर चल रही है.
आतंकी
मामलों
में संगठित धर्म और राजनीति का घालमेल क्या कर सकता है यह देखने योग्य है.
यह घालमेल इस बात को स्वीकार नहीं करता कि धार्मिक स्थल पर सशस्त्र
आतंकियों/अलगाववादियों
का कब्ज़ा धर्मस्थल पर और देश पर हमला होता है. वे पुलिस/सेना की कार्रवाई
को ही अपवित्र कार्रवाई मानते और घोषित करते हैं.
यह इसी घालमेल की सोच
का परिणाम है कि पंजाब में लगभग सभी राजनीतिक दल बलवंत की फाँसी को रुकवाने के लिए
एकत्रित हो गए हैं. बेअंत सिंह के उत्तराधिकारी भी उनके साथ हैं.
उल्लेखनीय है कि राजोआणा ने बेअंत सिंह की हत्या में अपनी संलिप्तता स्वीकार की है. उसने फाँसी की
सज़ा के विरुद्ध कभी दया याचिका दायर नहीं की. उसका मानना है कि उसने अपने साथी
को मानवबम के तौर पर उड़ाया और प्रयोग किया था. उसे ख़ुद को फाँसी से बचाने का कोई
औचित्य नहीं दिखता क्योंकि उसका मृत साथी आज न तो अपील कर सकता है और न वापस आ सकता है.
क्या बेअंत सिंह का जीवन वापस आ सकता है? नहीं.
इस बीच सतलुज
और ब्यास में काफी पानी बह चुका है. आज की तारीख़ में इसे किसी व्यक्ति के जीवन से
जोड़ कर देखना अच्छी बात है लेकिन कहीं हम राष्ट्र पर आक्रमण की परिभाषा को खतरे
में तो नहीं डाल रहे हैं? यह गंभीर प्रश्न है जो हर उस परिस्थिति में हमारे
सामने आ खड़ा होगा जब कोई धार्मिक-राजनीतिक हत्या होगी और कोई न कोई संगठित धर्म
किसी राजनीतिक दल के साथ सड़कों पर उतर कर हत्यारों
को शहीद घोषित कर देगा. हमारे देश
में संगठित धर्म हैं. आने वाले समय में और भी होंगे. कल नक्सली भी अपनी सोच
बदलते हुए या रणनीति के तहत किसी धर्म को अंगीकार कर लें तो शायद सब से
अधिक खुशी भारत में पसरे माओ-लेनिनवाद को होगी :))
धर्म की आड़ में यदि अलगाववाद या आतंकवाद कहीं सिर
उठाए तब हम किस दिशा में झांकेंगे और कितने समझौते करेंगे? क्या लोकतांत्रिक समझौतों से प्रेरित आतंक और शहादत की घोषणाओं का दौर चलता रहेगा और राष्ट्र पर हमले की परिभाषा पतली की जाएगी?
अच्छा होगा धर्म के अनुयायियों की संख्या के आधार पर कह दिया जाए कि ले
भइया तेरे पचास लाख अनुयायी, तुझे 50 धार्मिक आतंकियों का कोटा. खुश रहो, आबाद रहो!!!
हस्तक्षेप.कॉम से : राजोआणा से एक अंत क्यों, शुरूआत भी हो सकती है !
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