फेस बुक पर बने भगत महासभा के पेज पर एक सज्जन श्री सुनील कुमार ने यह टीप लिखी थी जिसे पढ़ कर मुझे अनायास हँसी आई. सुनील पर नहीं बल्कि उस टीप के मूल लेखक पर. सुनील को तो मैंने उस टीप की चालाकी का शिकार पाया. सुनील ने फेस बुक पर पेस्ट किया था-
"हमारे देश में अनेक प्रकार के
सांस्कृतिक विरोधाभास रहे हैं और जैसे जैसे अंग्रेज सभ्यता ने यहां पांव पसारे तो
वह अधिक बढ़े भी हैं। एक तरफ हमारे देश के लोग अपने रक्त प्रवाह में बह रहे प्राचीन
संस्कारों को विस्मृत नहीं कर पाते दूसरी तरफ पाश्चात्य सभ्यता में रचबसकर आकर्षक
दिखने का मोह उसे ऐसे कर्मो के लिये प्रेरित करता है जो न केवल अधार्मिक बल्कि
हास्यास्पद भी होते हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण अभिवादन का तरीके भी हैं जो आजकल
हम अपना रहे हैं। एक तो हम लोग अभिवादन के समय हाथ मिलाते हैं दूसरा यह कि एक हाथ
हिलाकर कुछ शब्द बुदबुदा देते हैं जैसे कि ‘हलो’ या फिर ‘क्या हाल हैं’
आदि। हाथ मिलाने की प्रक्रिया को तो अब
पश्चिमी चिकित्सा विशेषज्ञ भी नकारने लगे हैं। उनका कहना है कि इससे एक मनुष्य के
हाथ में जो विषैले जीवाणु हैं वह दूसरे में प्रविष्ट कर जाते हैं इससे स्पर्श के
माध्यम से फैलने वाले रोगों के संचरण की आशंका रहती है। एक हाथ हिलाकर अभिवादन
करना पश्चात्य सभ्यता में बड़े लोगों का तरीका है। जहां भीड़ है वहां नेता, अभिनेता और खिलाड़ी एक हाथ हिला हिलाकर
लोगों का अभिवादन करते हैं। इसमें कहीं न कहीं देह का अहंकार बाहर प्रकट होता है।
यही कारण है कि पश्चिम में भी कुछ लोग दोनों हाथ हिलाकर अभिवादन करते हैं।
एक हाथ से अभिवादन करना हमारे धर्म
ग्रंथों में वर्जित किया गया है।
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जन्मप्रभृति यत्किंचित् सुकृतं
समुपार्जितम्।
तत्सर्व निष्फलं याति
एकहस्ताभिवादनात्।।
‘‘एक हाथ से कभी अभिवादन नहीं करना
चाहिए। ऐसा करने से पूरा जीवन और पुण्य निष्फल हो जाता है।’’
हमारे देश में दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन
या प्रणाम करने की परंपरा है पर आजकल कुछ लोग ऐसे हैं जो हाथ मिलाने की औपचारिकता
से समय बचाने या फिर किसी अनावश्यक व्यक्ति के सामने होने पर उसका एक हाथ से
अभिवादन कर आगे बढ़ जाते हैं। इससे यह तो स्पष्ट होता है कि अभिवादन करने वाला आदमी
दूसरे को जानता है पर वह उससे रुककर बात नहीं करना चाहता। अपने को सभ्य साबित करने
के लिये अभिवादन भी वह जरूरी समझता है इसलिये एक हाथ हिला देता है। यह एक अधार्मिक
व्यवहार है। इससे तो अच्छा है कि मुंह ही फेर लिया जाये कि सामने वाले को देखा ही
नहीं। हमारे देश में दोनों हाथों से प्रणाम और अभिवादन करने की जो परंपरा है वह
विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इसमें न एक व्यक्ति दूसरे का स्पर्श करता है
न एक ही अधर्म की प्रक्रिया में लिप्त होता है। जब किसी व्यक्ति का अभिवादन करना
ही है तो फिर एक हाथ का उपयोग क्यों करें? दोनों
हाथों की सक्रियता इस बात का प्रमाण होती है कि हम हृदय से दूसरे व्यक्ति का
सम्मान कर रहे हैं।"
मुझे लगा कि इस टीप पर सच कहना आवश्यक था क्योंकि सच ही प्रकाश की ओर ले जाता है. मेरी जानकारी के रूप में यह टीप लिखी गई-
"@ Sunil Kumar. आशा है आप मेघ भगत हैं. यह तो तय है कि
यह आलेख आपने नहीं लिखा, बल्कि किसी ब्राह्मणवादी का लिखा है.
इतना कह कर इस आलेख की धज्जियाँ उड़ाई जा सकती हैं कि यदि भारतीय अभिवादन को सारा
विश्व श्रेष्ठ मानता तो दुनिया में हाथ जोड़ने की परंपरा पड़ गई होती. दरअस्ल इस
आलेख की नीयत समझने की ज़रूरत है.
जिसे भारतीय संस्कृति के तौर पर हमारे
और विदेशियों के मन पर बिठाया गया है वह वास्तव में ब्राह्मणिकल औज़ार हैं जिनके
माध्यम से भारत के मूलनिवासियों को दासत्व में रखने की कवायद की गई. अंगरेज़ों ने
भारत आने के बाद जब दलितों की शिक्षा की हिमायत करना शुरू किया तब ब्राह्मणवादी
चिल्लाने लगे कि पाश्चात्य सभ्यता से हिंदुओं (भारतवासी नहीं) के संस्कार दूषित
होने लगे हैं. वे नहीं चाहते थे कि शिक्षा का प्रसार दलितों में हो. यहीं एक
प्रश्न पूछ लेना चाहता हूँ कि क्या कभी किसी ब्राह्मण ने किसी दलित के चरणस्पर्श
करने या दोनों हाथ जोड़ कर दलितों को नमस्ते करने की परंपरा किसी युग में शुरू की? यही लोग सब से पहले अपनी मर्ज़ी से
मुसलमान बने और सैय्यद बन कर इस्लाम में बैठ गए. जब दलितों ने इस्लाम अपना कर
दासत्व की ज़ंजीरों को तोड़ना शुरू किया तो हायतौबा मचा दी कि देखो ज़बरदस्ती
मुसलमान बनाए जा रहे हैं. इसका ज्वलंत उदाहरण कबीर है जिनका परिवार पिछली चार
पीढ़ियों से इस्लाम अपना चुका था और ब्राह्मणिकल सिस्टम को समझता था और उसके
विरुद्ध बोलता था. ब्राह्मणों ने कबीर के विरुद्ध सारी ताकत झोंक दी थी कि उसे लोग
न सुने और न पढ़ें. क्या कबीर का कार्य हिंदू या भारतीय संस्कृति के विरुद्ध था? ज़रा सोचें.
आगे चल कर अंग्रेज़ों की मदद करने वाले
ब्राह्मण थे और सबसे पहले यही लोग ईसाई बने. यही लोग विदेशों में गए और वहाँ जाकर
ईसाई धर्म अपनाया. पैसे के लिए कोई कुछ भी कर सकता है. यहाँ तक ठीक था. लेकिन जैसे
ही दलितों (अनुसूचित जातियों, जनजातियों
और ओबीसी) के लोगों को ईसाई धर्म अपनाने से शिक्षा और रोज़गार मिलना शुरू हुआ तभी
इन्होंने इसे ‘ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन’ का नाम लेकर आंदोलन शुरू किए. इसे
हिंदू संस्कृति पर हमला बताया गया. मेरा विचार है आप मेरे साथ चल रहे हैं.
सुनील जी, इन लोगों के कारनामों को समझना टेढ़ी
खीर है. इनके किए हर कार्य को इस दृष्टि से देखना आवश्यक है कि जब भी ये धर्म, संस्कृति, सभ्यता की बात करें तो उसमें
दलितों के सम्मान और उनकी ओर पैसे के प्रवाह का कोण अवश्य देखा जाए. आरक्षण का
विरोध, धर्म परिवर्तन का विरोध, जातिगत जनगणना का विरोध, दलितों के धर्मस्थलों और धर्म गुरुओं
के विरुद्ध प्रचार आदि. क्या आप इसे ब्राह्मणों द्वारा हिंदू संस्कृति का विरोध
कहना पसंद करेंगे?
अंत में इसे संक्षेप में कहता हूँ कि
अपना हित साधने के लिए मैं किसी को हाथ जोड़ कर नमस्कार करूँगा. यदि मैं आर्थिक
रूप से स्वतंत्र हूँ तो हाथ या सिर हिला कर अभिवादन करूँगा. मेरा विचार है कि यह
सम्मानजनक व्यवहार है. मैं क्यों हर किसी के सामने हाथ जोड़ता फिरूँ या चरणस्पर्श
करता फिरूँ? ये
दोनों ग़ुलाम जातियों को डाली गई आदतें और निशानियाँ हैं, यह सारी दुनिया जानती है. इसमें हिंदू
संस्कृति निहित नहीं है बल्कि ऐसी सामाजिक प्रणाली निहित है जो ब्राह्मणों को समाज
में ऊँचा दर्जा दिलाती रही है."