आजाद भारत में किसी भी सरकार की शायद यह पहली परियोजना है जिसके खत्म होने की कोई तारीख नहीं है. इसके पूरा न होने के लिए कोई जवाबदेह नहीं होगा और इसमें हुई गलतियों का किसी से जवाब मांगना संभव नहीं होगा. इस योजना की घोषणा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 7 मई, 2010 को लोकसभा में की थी. जब पक्ष और विपक्ष के सभी दलों और सांसदों ने एक राय से 2011 की जनगणना में जाति को जोड़ने की मांग की, तो प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार सदन की भावना का ख्याल रखेगी और कैबिनेट इस बारे में जल्द ही निर्णय लेगी. सभी दलों ने इसके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का आभार जताया था.
वह योजना आज जमीन पर है या अधर में, किसी को नहीं मालूम. देश में हर 10 साल में होने वाली जनगणना 21 दिन में पूरी होती है. लेकिन आज कोई पक्के तौर पर यह नहीं कह रहा कि अभी जो सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना चल रही है वह कभी पूरी होगी भी या नहीं. एक आरटीआइ के जवाब में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने बताया है कि ''सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना 2011 के समापन की कोई समयसीमा नहीं है.''
इस गणना के लिए धन की कोई कमी नहीं है. केंद्र सरकार ने सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना के लिए 3,543 करोड़ रु. निर्धारित कर दिए हैं. यह रकम 10 वर्षीय जनगणना के खर्च से 1,345 करोड़ रु. ज्यादा है. केंद्र सरकार ने बताया है कि इस रकम में से पौने तीन हजार करोड़ रु. राज्यों और सरकारी कंपनियों को दिए जा चुके हैं.
गणना का काम एक साल पहले 29 जून, 2011 को त्रिपुरा के हाजेमोरा ब्लॉक से शुरू किया गया. 21 दिन में पूरा होने वाला काम 365 दिन बाद भी-जैसा कि सरकार बताती है-65 फीसदी ही पूरा हुआ है. और यह 65 फीसदी भी आंकड़े जुटाने का काम है. इसकी पड़ताल, आखिरी आंकड़ा तैयार करना, उसे ब्लॉक, जिला, राज्य और देश के स्तर पर संकलित करना और फिर उसे ऐसे आंकड़ों की शक्ल देना, जिसका विकास योजनाओं के लिए इस्तेमाल किया जा सके, यह सब तेजी से कर पाना आसान नहीं है, खासकर तब जबकि न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें किसी डेडलाइन के तहत काम कर रही हैं.
हालांकि इस योजना के प्रभारी ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश उम्मीद जताते हैं कि ''इसके सितंबर-अक्तूबर तक पूरा होने का अनुमान है.'' पहले यह सितंबर, 2011 तक ही पूरी होनी थी.
लेकिन यह कोरा अनुमान ही है क्योंकि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश ने राज्य में गणना पूरी करने के लिए इस साल के अंत तक की समयसीमा तय की है. राज्य की नोडल एजेंसी ग्राम्य विकास विभाग के उपायुक्त जगदीश सिंह कहते हैं, ''दिसंबर माह तक पूरे प्रदेश में गणना का काम कर लिया जाएगा.'' 29 मई, 2012 तक उत्तर प्रदेश में गणना शुरू भी नहीं हुई थी. 25 जून तक के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में 0.13 फीसदी काम हो पाया है, जबकि बिहार में 29 मई तक 2.06 फीसदी काम हुआ है.
जाहिर है, इन बड़े राज्यों में काम पूरा होने के बाद ही आखिरी आंकड़ों को संकलित करने का काम पूरा हो पाएगा. जनगणना कमिश्नर सी. चंद्रमौलि कहते हैं, ''गणना में हो रही देरी के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं.'' जयराम रमेश का भी कहना है कि ''जल्द काम पूरा करने के लिए हम राज्य सरकारों को बाध्य नहीं कर सकते.'' दूसरी ओर, राज्य सरकारों का इस बारे में स्पष्ट कहना है कि इस जनगणना के बारे में जो पूछना है,
केंद्र सरकार से पूछें. उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बारे में आरटीआइ से जवाब मांगने पर कहा कि मांगी गई सूचना केंद्र सरकार के जनगणना विभाग के पास है.
लेकिन सवाल उठता है कि 10 साल पर होने वाली जनगणना को जब 21 दिन में पूरा किया जा सकता है तो मौजूदा गणना एक साल में भी पूरी क्यों नहीं हो पाई. जनगणना का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन जनगणना आयुक्त कराते हैं. भारत के पूर्व जनगणना आयुक्त एम. विजयनउन्नी कई बार केंद्र सरकार को यह लिख चुके हैं कि जाति की गिनती जनगणना में एक कॉलम जोड़ने भर से कराई जा सकती है और इस तरह सरकार भारी खर्च से बच जाएगी.
लेकिन केंद्रीय गृह मंत्रालय के टालमटोल वाले रवैए के कारण यह नहीं हो सका और इस तरह जो आंकड़ा 2011 में आ सकता था, उसके लिए सरकार अभी तक जूझ रही है.
एनडीए के संयोजक और जेडी-यू अध्यक्ष शरद यादव इस गफलत के लिए सीधे तौर पर गृह मंत्री पी. चिदंबरम को जिम्मेदार ठहराते हैं. वे कहते हैं, ''चिंदबरम और चंद्रमौलि जाति जन गणना के खिलाफ थे इसलिए इसके चार हिस्से कर दिए, जबकि यह काम जनगणना विभाग का है.''
चंद्रमौलि इस पर सफाई देते हैं कि जाति की गिनती साथ कराने से जनगणना के आंकड़ों की विश्वसनीयता पर असर पड़ता. साथ ही सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक करके उस पर आपत्तियां मांगी जाएंगी, जबकि 10 वर्ष पर होने वाली जनगणना की जानकारी कानूनी अड़चनों के कारण सार्वजनिक नहीं की जा सकती. इसलिए व्यवस्था यह बनाई गई कि गणना राज्य सरकारें करेंगी, केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय और शहरी गरीबी उन्मूलन विभाग इस काम की निगरानी करेगा. केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत काम करने वाले जनगणना आयुक्त इस गणना के लिए तकनीकी सहायता उपलब्ध कराएंगे.
केंद्र सरकार ने इस काम को हैंडहेल्ड कंप्यूटर यानी टैबलेट के जरिए कराने का फैसला करके और मुसीबत मोल ले ली. चंद्रमौली का दावा है कि टैबलेट से जनगणना करने वाला भारत पहला देश है जबकि जनगणना का काम अब तक कागज पर सफलतापूर्वक होता रहा है और यह विवादों से भी परे है. चंद्रमौलि नई व्यवस्था की खासियत बताते हैं, ''पूरा सिस्टम ऑनलाइन है और गड़बड़ी की गुंजाइश नहीं है.'' 2010 में विकासशील देश ब्राजील ने उन्हीं कंप्यूटरों की मदद से देशभर की जनगणना सफलतापूर्वक कर ली थी.
केंद्र सरकार ने इस काम के लिए 6.40 लाख टैबलेट के ऑर्डर दे दिए. इनके लिए चिप चीन से खरीदे गए. ये ऑर्डर भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, ईसीआइएल (इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) और आइटीआइ लिमिटेड को दिए गए हैं. लेकिन ये कंपनियां समय पर टैबलेट नहीं दे पाईं. जयराम रमेश गड़बड़ियों का सारा जिम्मा इन कंपनियों पर लाद देते हैं (देखें बातचीत).
हालांकि जनगणना कमिश्नर चंद्रमौलि कहते हैं, ''कंपनियों ने अच्छा काम किया है. उन्होंने कम कीमत और कम समय पर टैबलेट तैयार करके दिए हैं.'' जनगणना पूरी होने के बाद 200 करोड़ रु. में आए इन टैबलेट का क्या होगा, इस बारे में किसी को नहीं मालूम. रमेश कहते हैं ''इसका इस्तेमाल किसी भी काम में हो सकता है. लेकिन यह अभी तय नहीं है.''
फिलहाल गांवों में बिजली न होने से टैबलेट जिला मुख्यालयों में ही रखे रह गए. बिहार के नवादा जिले में नवादा प्रखंड को छोड़कर कहीं भी बैटरी, यूपीएस और चार्जिंग की व्यवस्था नहीं की गई है. पटना और नवादा समेत बिहार के नौ जिलों में तकनीकी सहयोग दे रही कंपनी ईएमडीईई डिजिट्रॉनिक्स के प्रोजेक्ट मैनेजर उज्द्गवल सिन्हा कहते हैं, ''बिजली की समस्या के कारण काम में मुश्किल आ रही है.
लेकिन काम में तेजी लाने की कोशिश की जा रही है.'' वहीं ग्वालियर में गणना करने वालों को काम पर भेजा गया लेकिन साथ में टैबलेट नहीं दिए गए. उन्होंने जुटाई गई जानकारी कागज पर दर्ज की और फिर दफ्तर में बैठकर टैबलेट में उसकी एंट्री की.
जाति जनगणना में यह बात भी खास है कि इसमें काम में निजी कंपनियों और एनजीओ को लगाया गया है. बिहार में 38 जिलों में तकनीकी सहयोग के लिए पांच कंपनियों को लगाया गया है. उत्तराखंड के चमोली जिले में यह काम मैक्रो इन्फोटेक को सौंपा गया है, जिसने इसे यूके-एड को सौंप दिया. इस जिले में जनगणना में सात एनजीओ की मदद ली जा रही है.
जनगणना कर्मियों को महीने में ज्यादा से ज्यादा 4,950 रु. के भुगतान का प्रावधान है, जिसमें 3,000 रु. मासिक मानदेय और यात्रा भत्ता शामिल है, यह रकम उन्हें अब तक नहीं मिली है. छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में टैबलेट खराब होने की समस्याएं भी आईं. वहां जनगणना का काम करने वालों को अब तक मेहनताना नहीं मिला है.
देशभर से मिली जानकारी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पहल पर हो रही सामाजिक, आर्थिक और जाति जनगणना की हकीकत कितनी हास्यास्पद है. शीर्ष स्तर पर अड़ंगों के बाद आधे-अधूरे मन से की जा रही इस गिनती के खत्म होने की कोई मियाद नहीं है.
-साथ में आशीष मिश्र लखनऊ से, अशोक कुमार प्रियदर्शी नवादा से, वीरेंद्र मिश्र बस्तर से, समीर गर्ग, ग्वालियर से और ओम प्रकाश भट्ट चमोली से