Sorry! Not possible. |
चिदंबरम ने कहा तो खूब है लेकिन अधूरा
कहा है. सबसे पहले तो उनकी बात से यह उजागर नहीं होता कि ओबीसी भी इसी व्यवहार के
शिकार हैं. दूसरे, यदि अंग्रेजों के बनाए कानून के तहत पुलिस के प्रशिक्षण की बात
छोड़ भी दें तो भी समझने की बात है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले इन जातियों की शिकायत
न सुनने की मानसिकता कहाँ से पैदा होती आई है. पढ़े-लिखे तो पता नहीं लेकिन 'स्याने' जानते हैं कि यह
रवैया मनुस्मृति से प्रेरित है. वही रवैया अधिकतर ऊँची जातियों से भरी पुलिस की
कार्यप्रणाली को जाने-अनजाने में निर्देशित करता है. यही हाल न्याय व्यवस्था का है
जिसकी ओर चिदंबरम ने यह कह कर संकेत किया है कि “जिला मजिस्ट्रेट चाहें तो”. इस ‘चाहें तो’ वाली भाषा को बदलना भी इतना आसान नहीं.
यह समस्या सदियों से जेनेटिक और जेनेरिक (generic) रूप में है और संभवतः चिदंबरम भी इससे
प्रभावित हैं.
अब इस ‘चाहें तो’ की स्थिति से निबटने के लिए पहले ज़िला
मजिस्ट्रेटों और पुलिस को मनुस्मृति के उन प्रावधानों की कुरूपता के बारे में बनाना
होगा जो भारत के दलितों (ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) के प्रति रवैये
को निर्धारित करते हैं. उन कानूनों को बदलना होगा जिनकी पृष्ठभूमि में ये प्रावधान हैं. उसके बाद सरकार का ही कार्य होगा कि मनुस्मृति प्रतिबंधित पुस्तक
घोषित हो जाती है. (कोई कह रहा है, "अरे बिचुआ, ई नाहीं हुई सकत है").
लेकिन यह सब सरकार की नीयत पर निर्भर
करता है. आख़िर उसने भी तो बिना अधिक परिश्रम के किसी पर शासन करना है, किसी का
शोषण करना है और वोट की राजनीति करनी है.
Megh Politics
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