Friday, April 27, 2012

Is it religion? No. - यह धर्म है? नहीं.


भारत के जनजाति कबीलों में किसी न किसी रूप में देवी की पूजा और पशु-बलि की परंपरा रही है. मेघों में भी यह विद्यमान है जैसाकि इनके पूजा स्थलों (डेरे-डेरियों) पर देखा गया है. इन स्थलों पर पुजारी या पात्र होता है जो चौकी (चौंकी) देता है और उपस्थितों की पुच्छें (प्रश्नों के उत्तर और दिल की बातें) बतलाता है. यह बहुत रुचिकर है.

मैंने कुछ मेघों में देवी माता का आना सुना है. एक-दो महिलाओं को चौकी देते देखा है. शुद्ध कबीलाई परंपरा! इस चौकी देने की कला का प्रयोग शरीकों के प्रति घृणा फैलाने के लिए किया जाता है जो भारत की जनजातियों में आम बात रही है. 

शायद आपने भी देखा हो कि जब किसी जनजातीय महिला में देवी या माता प्रकट होती है वहाँ ऊँची जातियों के पुजारी मंडराने लगते हैं. ध्यान से देखने की बात है कि चौकी देने वाली दलित महिला को कोई चढ़ावा नहीं चढ़ाया जाता न ही दूसरी जाति के महिला/पुरुष उससे प्रश्न पूछते हैं :))

ऊँची जाति की कई महिलाओं ने चौकी देने की कला को धन कमाने का साधन बना लिया है. भरा-पूरा व्यवसाय. दूसरी ओर चौकी देने वाली दलित महिलाओं का पैसा ऊँची जातियों के पूजा स्थलों पर चढ़ावे के रूप में जाने लगता है. बहुत बढ़िया है न  :((


सही कहा गया है कि मेघ स्वयं को कबीरपंथी कहते तो हैं लेकिन उन पर कबीर का प्रभाव नहीं देखा गया है. इधर इक्कीसवीं सदी के आते-आते भारतीय समाज में विशेषकर ऊँची जातियों में परंपरागत धर्म के प्रति संशयवादी जागरूकता बढ़ी है. दलितों का आज भी यह हाल है कि जहाँ भी कोई मानव-धर्म या समानता-समानता चिल्लाता है तो ये उसके मुखापेक्षी हो उसके पीछे चलने लगते हैं और वह इनका आर्थिक-राजनीतिक फायदा उठा जाता है.


कभी थोड़ा रुक कर देखने की ज़रूरत है कि कहीं हम माथा रगड़ने की आदत तो नहीं पाले हुए हैं? बेहतर है कि इसे छोड़ कर बच्चों की शिक्षा और धन कमाई पर ध्यान दें. इससे बड़ी ईश्वर पूजा दूसरी नहीं है.



Megh Politics

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