लेकिन जब समाज की व्यावहारिक स्थिति की बात आती है तो दर्शन अलग खड़ा
दिखता है और वस्तुस्थिति अलग.
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि स्वयं को सुरक्षित रखते हुए ब्राह्मणों ने दलित जातियों और जन जातियों पर सीधे
हमले स्वयं तो कम ही किए हैं. अधिकतर हमले अन्य पिछड़ी जातियों के लोग ही करते आए हैं. यह ब्राह्मणवाद का ऊंच-नीचवादी हथकंडा है जो भारत के मूलनिवासियों को
बाँटने और उन्हें एक-दूसरे के हाथों मरवाने में सफल होता आया है.
यही फैक्टर है जो आज अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों की एकता की
संभावना पर प्रश्न चिह्न लगाता है. देश के दूर-दराज़ के गाँवों में फैली पुरानी
और जातिगत हिंसक प्रवृत्तियाँ इस एकता को रोकने के लिए हमेशा कटिबद्ध रहती हैं.
कुछ राज्यों में अन्य पिछड़ी जातियाँ अब तेज़ी से सत्ता की ओर बढ़ रही हैं और अनुसूचित जातियाँ तथा अनुसूचित जनजातियाँ
उनके मुँह की ओर ताक रही हैं कि शायद बुलावा आ जाए. उधर अन्य पिछड़ी जातियाँ इनकी ओर
देख तक नहीं रहीं.
No comments:
Post a Comment