Friday, June 1, 2012

Muslim reservation – apprehensions and timid postures – मुस्लिम आरक्षण – आशंकाएँ और भीरुता


भारतीय मुसलमान भारत के बहुत ही ग़रीब मानव समूहों में से हैं. ठीक दलित कौम की तरह. जैसे दलितों के लिए आरक्षण का विरोध उँची जातियों के लोग करते हैं वैसे ही पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण का विरोध सैय्यद आदि लोग करते हैं जो ब्राह्मणों आदि से मुसलमान बने हैं और अच्छे खाते-पीते लोग हैं.

जैसे ही ग़रीबों के आर्थिक विकास की नीतियों और उनके कार्यान्वयन की बात आती है उसके साथ ही नेताओं और अफ़सरशाही का दिमाग़ हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम, जैन, आदि की छवियों में धँस जाता है. इसलिए यह कहना कि धर्म और जाति से बना ढाँचा अब नए युग में नितांत निरर्थक है, ख़ुद को खारिज कर देता है. सच यही है कि सामाजिक स्तर पर उभरी पिछड़ेपन की लकीरें धर्म और जाति से होती हुई राष्ट्रीय बजट के वास्तविक खर्च तक खिंच जाती हैं.

इस देश में बहुसंख्यक समुदाय एक अस्पष्ट-सा तकनीकी शब्द है. तथापि अल्पसंख्यक समुदायों को आरक्षण देने की बात पर तथाकथित नबहुसंख्यक समुदाय कहता है कि इससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा. असलीयत में आर्थिक असंतुलन तो सदियों से बिगड़ा हुआ है. तब से जब आरक्षण का सवाल तक नहीं था. दलितों को दिए गए आरक्षण से उनकी हालत में कुछ सुधार हुआ है और अब आरक्षण के नाम पर भी उसे घृणा के निशाने पर खड़ा कर दिया गया है.

कहा जाता है कि आरक्षण के मुद्दे पर बनी कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर जब 1949 में मतदान कराया गया था तब मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी ने आरक्षण के विरोध में वोट डाला था. (पता नहीं इनमें से कोई निम्न जाति का मुसलमान था या नहीं तथापि दस में से सात वोट विपक्ष में पड़े थे). लेकिन सरदार पटेल ने आरक्षण के पक्ष में वोट दिया था. वे ऐसे समुदाय से थे जो पिछड़ों का दर्द जानता था. लेकिन मुस्लिम आरक्षण विरोधी लोग गाँधी और नेहरू को उद्धृत करने का रास्ता चुनते हैं जिनकी इस विषय में विश्वसनीयता लगभग शून्य है.

एक मुसलमान लेखक ने लिखा है कि मुसलमानों को अगर आरक्षण मिलता है, तो इससे एक बड़ा नुकसान यह हो जाएगा कि जो थोड़े-बहुत मुसलमान आज अपने बल पर मुख्यधारा में कहीं-कहीं मौजूद दिखते हैं, आरक्षण मिलने की स्थिति में वे मेहनत करना छोड़ सकते हैं”.

यह ब्यान हास्यास्पद है क्योंकि इसका मकसद यह सिद्ध करना है कि मुसलमान हक़क़ीत में मेहनती नहीं हैं. इससे लेखक की तर्कहीन मानसिकता रेखांकित हो जाती है. इस सोच में न तो बौद्धिक तर्क है और न ही व्यावहारिकता. ऐसी सोच वाले लेखकों की अपेक्षा वे संघर्षशील दलित बेहतर हैं जो आरक्षण का लाभ उठाने के बाद अब स्वयं को आरक्षण से अलग कर रहे हैं.
     
सही तरीका यही है कि सरकार जो देती है उसे मज़बूती से पकड़ा जाए. आरक्षण लिया जाए और निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए सरकार पर दबाव बनाया जाए. बेहतर है कि पिछड़े मुस्लिम और दलित साथ मिल कर संघर्ष करें और केंद्र सरकार पर दबाव बनाएँ कि वह आरक्षण संबंधी नियम (Rules) बनाए. केवल अनुदेशों से काम नहीं चलता. 

वैसे भी ऐतिहासिक दृष्टि से दलितों और अति पिछड़े मुसलमानों की समस्याओं की जड़ जात-पात में है. भारतीय मुसलमानों और 'भारतीय इस्लाम' के प्रति धार्मिक घृणा जात-पात से प्रेरित है. यही कारण है कि पिछड़े मुसलमानों, अन्य पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों की ओर धन प्रवाह को हर प्रकार से रोका जाता है. आरक्षण का विरोध उसी मानसिकता की उपज है.

पिछड़ों के लिए निर्देशित एक आलेख आप नीचे दिए लिंक पर देख सकते हैं.