सरकार ने पैट्रोल की कीमत साढ़े सात
रुपए बढ़ाई है. बाकी चीज़ों की कीमतें बढ़ने का सिलसिला जल्द ही शुरू हो जाएगा.
अब याद आ रहा है कि बहुराष्ट्रीय विदेशी
कंपनियों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के द्वार खोल देने के बाद सन् 1992 में डॉ.
मनमोहन सिंह ने कहा था मेरे बाद आने वाले वित्त मंत्री आराम से कार्य कर सकेंगे
(या सो सकेंगे). उल्लेखनीय है कि बदलाव की इस नीति के लिए भाजपा ने कांग्रेस का
पूरा साथ दिया था. वामपंथी दल (पता नहीं उन्हें वामपंथी क्यों कहा जाता है) ही थे
जो इसके विरुद्ध मुखर थे. कुछ ऐसे दल भी रहे जो आधे मन से साथ दे रहे थे. कई
राजनीतिज्ञों ने साफ़ कह दिया था कि देश को बेच डाला गया है.
आज पैट्रोल की कीमत बढ़ी है. कल डीज़ल
और रसोई गैस की कीमत बढ़ेगी. हमने बड़ी आशाओं के साथ नई अर्थव्यवस्था को स्वीकार
किया था. आशाएँ उन परिस्थितियों की कामना को कहते हैं जिनसे व्यक्ति सुख की
अपेक्षा करता है. दुनिया में सुख का सीधा संबंध धन-दौलत से है. जिनके पास धन-दौलत
नहीं होती वे अभाव में जीने का तरीका आध्यात्मिक शिक्षा से सीख लेते हैं. कबीर की
प्रार्थना है कि- ‘साई इतना दीजिए जा में कुटुंब समाय,
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाए.’ कबीर की प्रार्थना व्यावहारिक है जो
अपने साथ-साथ कई अन्य साधुओं के लिए भी माँग रही है. यानि आवश्यकता से अधिक मांगने
की परंपरा संत मत में भी रही.
जब हमने अमेरिकी टाइप की अर्थव्यवस्था
को स्वीकार किया था तो हमारे पास अमेरिका जैसी परिस्थितियाँ नहीं थीं. वह
पढ़े-लिखों का देश है. दूसरे वह अपने नागरिकों के लिए दूरगामी नीतियाँ बनाने में
सक्षम है. हमने अपनी अर्थव्यवस्था को दूसरे मुल्कों के लिए खोला वह भी मजबूरी और
दबाव में.
इन परिस्थियों में जनता क्या करे. यदि
वह कांग्रेस और भाजपा में से ही किसी को फिर से चुन कर लाती है तो उसे परिवर्तन के
नाम पर कुछ मिलने वाला नहीं. यही नीतियाँ जारी रहेंगी. उधर वामपंथी दल अपना दर्शन
बिछाए बैठे हैं जिसे भारत के असली ग़रीब ने कभी दिल से स्वीकार नहीं किया. यह तथ्य
है कि भारत में ग़रीब का नेतृत्व करने वाला कोई राजनीतिक दल अभी तक अस्तित्व में
नहीं आया. उधर मध्यम वर्ग की तकलीफ़ जटिल है. उसके पास राजनीतिक दल हैं तो सही, लेकिन जैसे ही पैसा आने लगता है तभी
उसे चाट जाने के लिए सरकारी नीतियाँ जीभ लपलपाती आ जाती हैं. यही वर्ग है जो निम्न
वर्ग में नहीं जाना चाहता. निम्न और मध्यम वर्ग ही हैं जिनके खून-पसीने से धनी
वर्ग बनता है और यही धनी वर्ग पैसे से राजनीतिज्ञों की मदद करके अपने पक्ष में
सरकारी नीतियाँ बनवाता है. संक्षेप में धनी वर्ग (जिसे पहले सामंतवादी व्यवस्था
कहा जाता था लेकिन अब कुछ पारिभाषिक परिवर्तन करके कार्पोरेट क्षेत्र कहा जाता है)
और सरकार मिल कर नीचे के दोनों वर्गों के ‘भाग्य विधाता’ बन जाते हैं.
मामलों के एक जानकार ने बताया है कि हमारा रुपया बीच गली में पिटा. हमने एफडीआई को अपने घर में आने से
रोका था, इसलिए डॉलर ने रुपए को गली में पीट दिया. अब यदि भारत
एफडीआई को घर में घुसने दे तो विदेशी कंपनियाँ डॉलर को डांट सकती हैं और रुपये को पुचकार कर खड़ा कर सकती हैं. क्या दबंगई है भई !!
आइये, बढ़ती कीमतों के खिलाफ़ हम सड़कों पर
उतरें और ज़ोरदार विरोध प्रदर्शन करें ताकि ऐसी सरकारी नीतियाँ बनाई जाएँ जिनसे
मध्यम और निम्न वर्ग के पास धन टिके और वे गुणवत्ता का जीवन जी सकें.
Megh Politics
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