किसी ने पूछा कि देश को कौन चलाता है तो
विद्वान आदमी ने उत्तर दिया, “देश को एडवोकेट
चलाते हैं.”
महात्मा गाँधी एडवोकेट थे. वे
अंग्रेज़ों के कानून और परंपराओं को जानते थे इसलिए उनसे भिड़ जाते थे. फिर
जवाहरलाल नेहरू आए. वे भी एडवोकेट थे. उनके पिता नामी-गिरामी एडवोकेट थे. आज संसद
पर नज़र डालें तो पाएँगे कि पक्ष-विपक्ष में एडवोकेटों की यह जमात छाई हुई है. ये
सरकार के फैसलों को प्रभावित करते हैं. चूँकि ये संसद में बैठे हैं अतः बाहर की
दुनिया को भी अच्छे-बुरे तरीके से प्रभावित करने की स्थिति में हैं.
भारत में एडवोकेट सत्ता पर क़ाबिज़ हैं.
वर्तमान में राज्य सभा और लोकसभा में कई सांसद हैं जो प्रखर एडवोकेट हैं. बहुत से
मंत्री एडवोकेट हैं. कई सांसद बनने के बाद धनी हुए. क्या यह केवल संयोग की बात है
या इसके पीछे कोई तत्त्व है. मैं मानता हूँ कि इसके पीछे एडवोकेट होने का तत्त्व
महत्व रखता है.
मैंने नेट पर एक पुस्तक में पढ़ा था कि
मेघों की विशेषता थी कि ये अदालतों में नहीं जाते थे. पता नहीं यह विशेषता थी या
उनकी ग़रीबी से पैदा मजबूरी थी. लेकिन आर्यसमाज के समर्थन से शिक्षा प्राप्त मेघों
के दो बालक जो अपने समुदाय में पहले शिक्षित और स्नातक हुए वे दोनों एडवोकेट बने.
श्री जगदीश मित्र और श्री हंसराज. जगदीश मित्र का जीवन छोटा रहा (*). श्री हंसराज डॉ.
अंबेडकर से प्रभावित थे और उन्होंने उनके साथ मिल कर कार्य भी किया था. श्री
हंसराज राजनीति में आए और दिल्ली में रह कर प्रेक्टिस की.
वैसे तो शेक्सपियर ने लिखा है- "पहला
काम हम यह करें कि हम सभी वकीलों को मार दें."
(ताकि राजा के आदेशों को चुनौती देने वाला कोई न रहे). यह नकारात्मक स्थिति में कहा
गया है. सच यह है कि ये बेहतर राजनीतिज्ञ होते हैं. एडवोकेटों की मेघ समुदाय को
भी आवश्यकता है और देश को भी. क्या हमारे पास ऐसे एडवोकेट हैं जो राजनीति में बड़े
पैमाने पर आ सकें?
Too
many advocates in Parliament - Economic
Times
(*) सुना
है कि श्री जगदीश मित्र ने संन्यास ले लिया था और हरिद्वार चले गए थे. वहाँ उनका
काफी सम्मान था और उनके लिए हाथी की सवारी उपलब्ध कराई गई थी. यह बात एक वृद्ध महिला
ने बताई है.
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