Friday, May 11, 2012

Valmiki community (Scavengers) retain their income


चंडीगढ़ नगर निगम - सफाई की बातें, पैसे पर निशाना

आज भारत में जातीय संघर्ष के कई रूप दिखते हैं और अब यह मुख्यतः पैसे की ही सारी लड़ाई है. एक उदाहरण हाल ही में चंडीगढ़ में देखा.

घर-घर से कूड़ा उठाने वालों को एक दिन ख़बर मिली कि नगर निगम ने प्रयोग के तौर पर एक परियोजना शुरू की है कि निगम के कर्मचारी और ट्रक सैक्टर-22 के घरों में आकर घंटी बजाएँगे और वहाँ के रहने वालों से गारबेज बैग या कूड़ा बाल्टी से कूड़ा ले जाएँगे. कूड़ा उठाने का शुल्क 70 रुपए प्रतिमाह बिजली के बिल में शामिल करके भेजा जाएगा और लोगों को परंपरागत कूड़ा उठाने वालों की मनमानी से छुटकारा मिलेगा. बहुत खूब. लेकिन सफाई करने वाले समुदाय ने अचानक हड़ताल कर दी और निगम की कार्रवाई के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया. उन्होंने कूड़ा फेंकने के निर्धारित स्थानों की निगरानी की और चौकस दृष्टि के साथ आंदोलन चलाया. घरों में कूड़ा इकट्ठा होना शुरू हो गया. लोगों ने बहुत धैर्य का परिचय दिया. कुछ दिनों के बाद निगम ने बातचीत के बाद अपनी परियोजना को बंद करने का निर्णय लिया और सफाई करने वाले कार्य पर लौट आए. लोगों ने राहत की लंबी साँस ली. सिर्फ़ एक श्री शर्मा के अलावा, जिसे दि ट्रिब्यून ने संदर्भित करते हुए कहा था कि निगम ने ऐसे आंदोलन से निपटने के लिए पूरे प्रबंध नहीं किए थे.

सच्ची बात यह है कि मैं कई अनपढ़ों से गया गुज़रा हूँ. सोचा कि परंपरागत रूप से कूड़ा उठाने वालों की स्थिति के बारे में जानकारी ली जाए. सो अपने घर में सफ़ाई का काम करने वाली महिला को पूछा कि यह माजरा क्या था. उसने कूड़ा उठाने के कार्य की आर्थिकता की जो बात बताई उसका सार यह है-

ये कर्मचारी एक घर से कूड़ा उठाने के प्रति परिवार 50 रुपए लेते हैं. निगम 70 रुपए लेता जो एक घर में रहने वाले परिवारों या किराएदारों में बँट जाता. दूसरा पक्ष है कि कचरे के अतिरिक्त इन लोगों को इसमें ऐसी वस्तुएँ भी मिलती हैं जो कबाड़ के रूप में बिकती हैं. (यह सुनते ही मेरे दिमाग़ का बल्ब जला क्योंकि मैं पठानकोट के एक महाजन परिवार को जानता हूँ जिनके चार भाइयों में से तीन अच्छे साफ़-सुथरे दूकानदार हैं और एक कबाड़ का काम करता है. चारों में से सिर्फ़ कबाड़ का कार्य करने वाले भाई ने चंडीगढ़ जैसे महँगे शहर में मकान बनाया.) मेरे पूछने पर उस महिला ने बताया कि कई कूड़ा उठाने वालों को कबाड़ इकट्ठा करके महीने में चालीस-पचास हज़ार रुपए की आमदनी हो जाती है और कि उन लोगों ने अपने यहाँ कुछ युवाओं को रोज़गार भी दिया हुआ है. मेरी खोपड़ी घूम कर लौट आई. आयकर दाता हूँ सो तुरत ध्यान आया कि अरे ये भी टैक्स देते होंगे क्या? फिर तुरत ही कृषि से प्राप्त आय का ध्यान आया जिस पर कोई आयकर नहीं लगता क्योंकि कृषि एक जोखिम भरा व्यवसाय है.

ओके भाई साहब. अब आप कूड़ा उठाने वाले किसी भी व्यक्ति के खून की जब  चाहे जाँच करवा लें. वह कभी स्वस्थ नहीं निकलेगा. यह कार्य पूर्णतः जोखिम भरा है. फिर ये लोग आगे भी रोज़गार का उत्पादन कर रहे हैं. इससे प्राप्त आय को आय कैसे माना जा सकता है. नाइयों के कार्य को भी आयकर से मुक्त रखा गया है.

साफ़ बात है कि नगर निगम की निगाहें कबाड़ पर थीं और इस पूरे प्रकरण के पीछे किन्हीं ठेकेदारों की भूमिका थी जो कबाड़ के थोक व्यापारी हैं. कूड़ा उठाने वालों ने इस कूड़े को भी पहचान कर साफ़ किया. जय हो.

पैसे का संघर्ष लग़ातार चलने वाला है. कभी राजनीतिक फैसलों से और कभी नई तकनीक के नाम पर. लेकिन क्या कोई व्यक्ति अपनी आय के साधन को थाली में रख कर किसी अन्य के हाथ में ऐसे ही सौंप देता है? हाँ, भारत के जुलाहों में यह बात है जो विभिन्न नामों में बँटे हैं. उन्होंने उन सरकारी नीतियों के विरुद्ध कभी कोई संगठित आंदोलन नहीं चलाया जिनकी मदद से देश भर के मेघवंशी जुलाहों, अंसारियों के व्यवसाय को तबाह करके गिने-चुने उद्योगपतियों (ऊँची जातियों) के हाथों में सौंप दिया गया.

ग़रीब से अकिंचन हो जाने से बेहतर है कि ग़रीब से बेहतर कुछ बना जाए.


Megh Politics

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