जून
15, 2010 को सत्गुरु कबीर साहेब का प्रकाशोत्सव पैरेड ग्राऊँड जम्मू में मनाया जा
रहा था. यह उत्सव देखने मैं जम्मू गया था.
सिर पर थी कड़ी धूप और छोटे-छोटे बच्चे हाथों में जय कबीर के झंडे लिए खड़े थे. मैंने उन्हें फोटो के लिए अनुरोध किया तो उन्होंने चेहरे ऊपर उठा कर धूप को गालों पर लिया और चिलचिलाती धूप ये बच्चे कैमरे के सामने मुस्कराना नहीं भूले. 04 जून, 2012 को भी वही परिस्थितियाँ थीं.
सिर पर थी कड़ी धूप और छोटे-छोटे बच्चे हाथों में जय कबीर के झंडे लिए खड़े थे. मैंने उन्हें फोटो के लिए अनुरोध किया तो उन्होंने चेहरे ऊपर उठा कर धूप को गालों पर लिया और चिलचिलाती धूप ये बच्चे कैमरे के सामने मुस्कराना नहीं भूले. 04 जून, 2012 को भी वही परिस्थितियाँ थीं.
ऐसे
बड़े समागमों के लिए जून का मौसम उचित नहीं कहा जा सकता. 43-45 डिग्री तापमान में
सुबह से सायं तक हजारों लोग बैठे थे. वे म्युनिसपैलिटी के टैंकरों का पानी पी रहे
थे (मेरी बात आप समझ रहे होंगे) और पानी की कई-कई बोतलें 15 रुपए में खरीद कर पी
रहे थे. उनकी श्रद्धा प्रशंसनीय थी. जो लोग इतने गर्म मौसम में घर से नहीं निकले
उनकी संख्या जानना महत्वपूर्ण होगा. जैसा कि होना था लोगों की शिरक़त उम्मीद से कम
रही.
कई
महापुरुषों के जन्मदिन मई-जून में आते हैं. यानि अति गर्म मौसम. 600 साल पहले के मौसम और आज के मौसम में बहुत फर्क है. तब इतनी गर्मी नहीं होती थी. 45 डिग्री की गर्मी ऐसे समागमों के लिए हतोत्साहित करने वाला फैक्टर है. ऐसी तेज़ गर्मी
श्रद्धा को चाहे प्रभावित न करे लेकिन सहभागिता को अवश्य कम करती है.
बेहतर
है कि बदले हालात में संतों से संबंधित समारोहों को छबीलें लगा कर सुहावना
बना लें और मुख्य समागम को नया नाम दे कर अक्तूबर-नवंबर जैसे महीने में शिफ्ट कर
लें. यह समय का ज़ोरदार तक़ाज़ा है.
आयोजक लोगों की श्रद्धा देखें लेकिन यह संगठनात्मक कार्य
के लिए हानिकारक है.
है जुनून, हम सूरज पे नाच आते हैं |
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