Wednesday, August 29, 2012

Arvind Kejriwal speaks complete truth but not final truth - अरविंद केजरीवाल ने बोला पूर्ण सत्य परंतु अंतिम नहीं



मैं अरविंद केजरीवाल या इंडिया अगेंस्ट करप्शन का फैन कभी नहीं रहा. तथापि कभी किसी आंदोलन के दौरान कुछ बातें बहुत बढ़िया कही जाती हैं जिनमें आज का सत्य रहता है.

26-08-2012 को दिल्ली में अपने आंदोलन के दौरान अरविंद ने कहा है कि संसद में कोई विपक्ष नहीं है. करप्शन में कांग्रेस और भाजपा दोनों की भूमिका एक सी है. यह कह कर अरविंद ने बड़ी सच्चाई पर बड़ा हाथ रखा है. लेकिन दोनों पार्टियों में भरे उस समूह पर सीधे उँगली नहीं रखी जिसे भ्रष्ट नीतियों का जनक कहा जाता है. ऐसा नहीं है कि अरविंद को पता नहीं था. बस वे उसका नाम न लेने की राजनीति कर गए.

नए-नए अटल बिहारी ने सत्ता में आने के बाद कहा था कि कोई भी पार्टी हो सत्ता का चेहरा एक जैसा होता है. केजरीवाल की उक्ति भी वैसी ही है. केवल समय बदल गया है और कोयला घोटाले में गोरा संदर्भ मिल गया है.

पता नहीं हम कब स्वीकार करेंगे कि हमारी नीतियाँ अंग्रेज़ों की हैं और हमारे सिस्टम का कार्य ही भ्रष्टाचार है. कोई कहता है कि सत्ता काले अंग्रेज़ों के हाथ में चली गई है. यह हम भारतीयों के काले-भूरे रंग का अपमान है. सच तो यह है कि सत्ता अंग्रेज़ों के हाथ से कभी गई ही नहीं. भ्रष्टाचार संबंधी सारे कानून पढ़ कर देख लें वे सभी गोरे हैं.

Saturday, August 18, 2012

Reservation in services - नौकरियों में आरक्षण

मेरे MEGHnet ब्लॉग पर नौकरियों में आरक्षण को लेकर काफी चर्चा हुई है जिसे आप नीचे दिए चित्र पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं.


Friday, August 17, 2012

Development is the name of God - उन्नति को ही ईश्वर कहते हैं.


दलित जातियों के लोग भगवान या ईश्वर की अवधारणा पर गूढ़-लंबी चर्चा में रुचि लेते हैं और समय बरबाद करते हैं. ऐसी चर्चा करना ज्ञान पर ज्ञान बघारने जैसा है और अहंकार का मामला बन के रह जाता है. हाथ कुछ नहीं आता. एक रुपया (`.0) भी नहीं.

आख़िर हम भगवान की पूजा क्यों करते हैं? अत्यंत ग़रीब, बीमार और दूसरों द्वारा भयंकर रूप से सताए गए लोग अपने कष्ट से मुक्ति के लिए पूजा-प्रार्थना करते हैं. अन्य लोग स्मृद्धि के लिए भगवान की पूजा करते हैं. यदि कोई ग़रीब स्मृद्धि के लिए पूजा करता है और अपनी ग़रीबी दूर करने के लिए कार्यशील रहता है तो उसे पूजा का लाभ इसी जन्म में मिलना चाहिए. जो लोग अगले जन्म में लाभ की आशा रखते हैं उनके लिए श्रेष्ठतर होगा कि वे जन्म-मरण से पार जाने का तरीका कबीर से सीख लें.

भगवान की सच्चाई सभी विद्वान और आम लोग जानते हैं कि वह बाहर नहीं मिलता. वह अंतर्घट में चेतन तत्त्व के रूप रहता है आदि-आदि. उनमें से जो अधिक समझदार हैं वे अपनी ईश्वर की या धर्म की दूकान खोल कर पैसा बनाते हैं और धनाढ्यों का जीवन जीते हैं. वे राजनीति में दख़लंदाज़ी रखते हैं.

जो युवा ईश्वर और धर्म पर चर्चा में अधिक रुचि लेते हैं उनके लिए बेहतर है कि वे अपनी सांसारिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील हो जाएँ. ईश्वर हर समय उनके अंग-संग है. ईश्वर है और ब्रह्मरूप में है. ब्रह्म का अर्थ ही है बढ़ना और उन्नति करना, इसी जन्म में. उस ईश्वर-ब्रह्म को प्रत्यक्ष रूप में देखना है तो उसे अपने और अपने समुदाय के विकास में देखा जा सकता है. विकास है तो ईश्वर है, विकास नहीं है तो ईश्वर भी नहीं है. इधर-उधर पैसा चढ़ाने और लुटाने की बजाय उन्नति के अपने प्रयासों में विश्वासपूर्वक श्रद्धा बढ़ाएँ और उनमें लगे रहें. यह भी उतना ही लाभकारी है. विश्वासं फलदायकं अर्थात विश्वास ही स्मृद्धि का फल देता है.

क्या आपको यह संस्कार मिला है कि मंदिरों में पैसा चढ़ाने से ही भगवान प्रसन्न होते हैं? तनिक सोचें. यदि आप अपने किसी ज़रूरतमंद संबंधी की मदद करते हैं तो वह मंदिर में चढ़ावे से अच्छा है. इस मदद को सद् ब्राह्मणों ने विष्णु की पूजा कहा है. यदि आप के पास खुला पैसा है तो आप अपने समुदाय के ऐसे संगठनों को भी पैसा दे सकते हैं जो समुदाय के विकास के लिए कार्यरत हैं. इसे ही सद् ब्राह्मणों ने महालक्ष्मी और महाविष्णु की पूजा कहा है. सामर्थ्य के अनुसार यह पूजा अवश्य करनी चाहिए.

ईश्वर और ईश्वर पूजा के अर्थ की इससे सरल व्याख्या मैं नहीं कर सकता और जो सज्जन इस आलेख को समझ लेंगे उनकी उन्नति निश्चित है.

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असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
                                
                             हरिवंशराय बच्चन 
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Monday, August 13, 2012

Gangs of films - फिल्मों के गैंग


पुस्तकें और फिल्में दलितों के हितों को कैसे हानि पहुँचाती हैं शिक्षित दलित अब अधिक जानने लगे हैं.

कई वर्ष हो गए हैं मैं कोई फिल्म उसकी अच्छी जानकारी लेकर ही देखता हूँ वह भी टीवी पर. इससे पैसा बचता है और मन भी. फिल्में मन पर न बैठतीं तो इन पर इतना पैसा कोई क्यों खर्च करता? ये समाज की सोच को प्रभावित न करतीं तो अर्ध राजनीतिक गैंग (अंडरवर्ल्ड) इनमें पैसा क्यों लगाते? 

भारत में फिल्मों का प्रयोग जातिवाद फैलाने और धार्मिक घृणा का वातावरण बनाने के लिए किया जाता है और यह संगठित प्रयास होता है (भारत में हिंदू धर्म से निकल कर मुस्लिम और ईसाई हो चुके लोगों के विरुद्ध प्रचार जातिवाद का ही रूप है क्योंकि अधिकांश मुसलमान और भारतीय ईसाई भारतीय दलित ही हैं). ये फिल्में मनोरंजन के माध्यम से बड़े ही सौम्य और नम्र तरीके से समाज और अंततः राजनीति को प्रभावित करती हैं. सब से बड़ी बात यह कि मनोरंजन के नाम पर ये उन लोगों की जेब भी काटती हैं जिनके विरुद्ध ये सामाजिक वातावरण बनाती हैं. दलित समाज को इसे बहुत बारीक दृष्टि से देखना होगा. 

इस बारे में एक आलेख नीचे लिंक किया गया है जो पढ़ने लायक है.



Friday, August 10, 2012

'Social Justice Day' - 07 Agust - ‘सामाजिक न्याय दिवस’ - 07 अगस्त


फेस बुक पर एक पोस्ट में 07 अगस्त को भारत के गुलामों के लिए ऐतिहासिक दिन कहा है. प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह (V.P. Singh) ने 07.08.1990 को, कमंडल के प्रत्युत्तर में ही सही, लेकिन संसद में मंडल आयोग (Mandal Commission) की सिफ़ारिशों को स्वीकार करके एक ऐतिहासिक कार्य कर दिया था. इससे भारत की गुलाम कौमों के एक वर्ग को पिछड़ा वर्ग के तौर पर आरक्षण जैसे सरकारी लाभ मिलने की शुरुआत कर दी. उनके इस कदम ने भारतीय राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल दिया.

मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को स्वीकार करने के बाद सारे उत्तर भारत में विरोध प्रदर्शन हुए जिसमें अनपढ़ और डरे हुए पिछड़े भी आरक्षण के विरोध में आत्महत्या का खेल खेलते देखे गए. शायद उन्हें लग रहा था कि वे अगड़ों में शामिल हो चुके थे.

भारत के बिकाऊ मीडिया को बिकने के लायक मसाला मिल गया और उसका जातिवादी और मनुवादी चेहरा और भी स्पष्ट रूप में सामने आया. उस समय पिछड़े बोलने की हालत में नहीं थे. उधर अनुसूचित जातियों पर मानसिक दबाव बढ़ा दिया गया. आज पिछड़े बोलने की हालत में हैं. कुछ राज्यों में उन्होंने अपने वोट बैंक को संगठित किया है. शरद यादव, लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार, मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव, स्वामी रामदेव, अन्ना हज़ारे एक लय में कार्य करते नज़र आते हैं. इसका श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को जाता है.

लेकिन पता नहीं क्यों ये ओबीसी अचानक सत्ता के मद में इतना बह गए कि भारत के पिछड़े समाज के समग्र उत्थान का संकेत भुला बैठे. विश्वनाथ प्रताप सिंह के बनाए चौड़े रास्ते के प्रति श्रद्धा और विश्वास रखना श्रेयस्कर होगा. अन्यथा यही समझा जाएगा कि इन्होंने ग़ुलामी की मानसिकता से अभी छुटकारा नहीं पाया है.

होना तो यह चाहिए कि पिछडे, दलित और जनजातियाँ (OBCs, SCs and STs) 07अगस्त को सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाएँ और श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को याद करें जिन्होंने सामाजिक न्याय के लिए स्वयं को एक बड़ी लड़ाई में झोंक दिया था और उस संघर्ष को जन्म दिया जो आगे चल भारत के सामाजिक-राजनीतिक स्वरूप को बदलने वाला है. और भी अच्छा हो यदि ये सभी मिल कर ज्योतिबा फुले और डॉ. अंबेडकर के प्रयासों को भी उतनी ही श्रद्धा से इस दिन याद करें.


Megh Politics

Wednesday, August 8, 2012

All India Satguru Kabir Sabha – आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा - (1958)

कल 03-08-2012 को आर्य समाज मंदिर, सैक्टर-16, चंडीगढ़ में श्रीमती तारा देवी की रस्म क्रिया के बाद भगत प्रेम चंद जी ने एक स्मारिका (Souvenir/सुवेनेयर - 2012-13) मुझे दी. 

आल इंडिया सत्गुरु कबीर सभा (1958), मेन बाज़ार, भार्गव नगर, जालंधर का नाम सुना था लेकिन मेरी जानकारी में नहीं था कि सभा (AISKS) ने इस वर्ष ऐसी स्मारिका का प्रकाशन किया है. इस स्मारिका को देख कर सुखद आश्चर्य हुआ.

सुखद आश्चर्य इस लिए कि ये स्मारिकाएँ संस्था द्वारा संपन्न कार्यों का प्रकाशित दस्तावेज़ होता है. इसमें कार्यों की भूमिका, उनके महत्व, संबंधित विषयों पर आलेख, कार्यकर्ताओं और संगठन की गतिविधियों के बारे में जानकारी आदि होते हैं जो धीरे-धीरे एक इतिहास का निर्माण करते हैं. इस स्मारिका में यह सब कुछ दिखा.

यह स्मारिका सत्गुरु कबीर के 614वें प्रकाशोत्सव (04-06-2012) के अवसर पर जारी की गई थी. इसका संपादन श्री विनोद बॉबी (Vinod Bobby) ने किया है और उप संपादक श्री गुलशन आज़ाद (Gulshan Azad) हैं.

इस स्मारिका में काफी जानकारियाँ हैं. लेकिन जो मुझे अपने नज़रिए से महत्वपूर्ण लगीं उनका उल्लेख यहाँ कर रहा हूँ. इसका संपादकीय जालंधर में कबीर मंदिरों (Kabir Temples) के विकास की संक्षिप्त कथा कहता है और इसमें शामिल आलेख कबीर से संबंधित जानकारी देते है. राजिन्द्र भगत द्वारा श्री अमरनाथ (आरे वाले) पर लिखा आलेख सिद्ध करता है कि अपने समाज के अग्रणियों पर अच्छा लिख कर हम आने वाली संतानों के लिए आदर्श जीवनियों का साहित्य निर्माण कर सकते हैं. यह अच्छी भाषा में लिखा आलेख है. 'अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति पीठ - कबीर भवन' पर लिखा आलेख प्रभावित करता है.

स्मारिका में प्रकाशित विज्ञापन बताते हैं कि मेघ भगतों ने इसके प्रकाशन में खूब सहयोग दिया है. बहुत-बहुत बधाई, क्योंकि यह करने योग्य कार्य है.

इस सभा के संस्थापकों में आर्यसमाज के अनुयायी मेघ भी कबीर सभा की इस स्मारिका में दिखे जो मेघ समाज में हो रहे परिवर्तन का द्योतक है. आर्यसमाजी विचारधारा के कारण मेघ भगत समाज ने कबीर और डॉ. भीमराव अंबेडकर को बहुत देर से अपनाया. यह देख कर अच्छा लगा कि इस स्मारिका में विवादास्पद लेखक श्री एल. आर. बाली (L.R. Bali) ('भीम पत्रिका' के संपादक) का आलेख भी छापा गया है जिन्होंने अपना पूरा जीवन अंबेडकर मिशन को समर्पित कर दिया है. मुझे आशा है कि मेघ भगत देर-सबेर डॉ. अंबेडकर, जो स्वयं कबीरपंथी थे, को जाने-समझेंगे.

स्मारिका में सभा के कार्यकर्ताओं का टीम अन्ना के साथ दिखना राजनीतिक संकेत करता है और यह अच्छा है.

आशा है कि मेघ भगतों के अन्य संगठन भी ऐसी स्मारिकाएँ छापने के बारे में विचार करेंगे. 

 स्मारिका की पूरी पीडीएफ फाइल आप नीचे दिए इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं

Souvenir (p. 1-32)

Souvenir (p. 33-64)



मेघ भगत



Thursday, August 2, 2012

Communist parties are no alternative - साम्यवादी दल विकल्प नहीं हैं

मैं कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास रखता हूँ लेकिन अमल नहीं करता. इसके कई कारण है. मेरे मस्तिष्क पर कई प्रकार के हिंदू संस्कारों का प्रभाव है जो बचपन से हैं और मुझे इस विचारधारा के साथ बहने से रोकते हैं.

यह सही है कि कम्युनिज़्म एक सरकारी प्रयोग के रूप में दुनिया भर में फैला. लेकिन एक हद तक जा कर यह असफल हो गया. लेकिन इसके पीछे वर्ग संघर्ष का एक सनातन तत्त्व है जिसने इसे पूर्णरूप से खारिज नहीं होने दिया.

कुछ भारतीय कम्युनिस्ट अब कहने लगे हैं कि 'साम्यवाद की विचारधारा वेदों में उपलब्ध है'. लेकिन इस पर विश्वास करना कठिन है. वेदवाद ने भारत में वामपंथ को किसी रूप में अपनाया हो इसका प्रमाण नहीं मिलता. वेदवाद भी धन अर्जन की प्रक्रिया रहा है और देश के अधिकांश मूलनिवासियों का भयंकर शोषण सदियों से होता चला आ रहा है. वेदों में 'शिवसंकल्प' (सकारात्मक सोच या positive thinking) का बखान है जो व्यक्ति के लिए बहुत उपयोगी है लेकिन वामपंथ के राजनीतिक अर्थ और संदर्भ में वेदविचार को स्वीकार करना असंभव ही है.

भारत में वामपंथी राजनीतिक दलों का बंगाल और केरल जैसे राज्यों में बोलबाला रहा है. हाल ही में बंगाल में इनकी हार हुई है. इस हार के लिए एक ओर नक्सलवाद ज़िम्मेदार है और दूसरी ओर इन दलों का ब्राह्मणीकल नेतृत्व भी. लेकिन यह स्पष्ट है कि इनसे लोगों का मोहभंग हुआ है. हर रोज़ की मज़दूर संघों की हड़तालों से तंग आए लोगों ने इन्हें अपना समर्थन कम किया. मज़दूर संघों के रवैये के कारण उद्योग का न पनप पाना और रोज़गार के अवसरों में कमी आना भी इसका कारण रहा है.

शिक्षा और राजनीतिक जागरूकता ही बेहतर तरीके का कम्युनिज़्म देश में ला सकते हैं. कम्युनिज़्म की सामाजिक और राजनीतिक क्रांति की अवधारणा हिंसा से मुक्त नहीं है. बेहतर है कि विवेकपूर्वक तरीके से समाज के हर वर्ग का विकास किया जाए. पैसे वाले मानव समूहों को हिंसात्मक पटखनी देने के बजाय संपूर्ण समाज को विकास की एक निश्चित दिशा देना अच्छा है. 

कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों से अब लोगों को अधिक उम्मीद नहीं है और साथ ही वे कम्युनिस्ट दलों से दूर रहने में भलाई समझते हैं.

तीसरे मोर्चे की बात करना आजकल एक फैशन हो गया है. तीसरा मोर्चा एक फैलाया गया भ्रम मात्र है. चुनावों में पैसे का इतना बोलबाबा है कि फिलहाल तीसरे मोर्चे को भारत के धनतंत्र का समर्थन मिलना कठिन है और भूमिका उसी की प्रमुख होती है.

भविष्य में तीसरा या चौथा मोर्चा बनेगा ज़रूर लेकिन उसके स्वरूप ग्रहण करने में अभी समय है.