पुस्तकें और फिल्में
दलितों के हितों को कैसे हानि पहुँचाती हैं शिक्षित दलित अब अधिक जानने लगे हैं.
कई वर्ष हो गए हैं मैं
कोई फिल्म उसकी अच्छी जानकारी लेकर ही देखता हूँ वह भी टीवी पर. इससे पैसा बचता है
और मन भी. फिल्में मन पर न बैठतीं तो इन पर इतना पैसा कोई क्यों खर्च करता? ये समाज की सोच को
प्रभावित न करतीं तो अर्ध राजनीतिक गैंग (अंडरवर्ल्ड) इनमें पैसा क्यों लगाते?
भारत
में फिल्मों का प्रयोग जातिवाद(भारत में हिंदू धर्म से निकल कर मुस्लिम और ईसाई हो चुके लोगों के विरुद्ध
प्रचार जातिवाद का ही रूप है क्योंकि अधिकांश मुसलमान और भारतीय ईसाई भारतीय दलित
ही हैं). ये फिल्में मनोरंजन के माध्यम से बड़े ही सौम्य और नम्र तरीके से समाज और
अंततः राजनीति को प्रभावित करती हैं. सब से बड़ी बात यह कि मनोरंजन के नाम पर ये
उन लोगों की जेब भी काटती हैं जिनके विरुद्ध ये सामाजिक वातावरण बनाती हैं. दलित
समाज को इसे बहुत बारीक दृष्टि से देखना होगा.
इस बारे में एक आलेख
नीचे लिंक किया गया है जो पढ़ने लायक है.
Raj Packaya Bhagat via FB
ReplyDeleteकभी-कभी ऐसी फ़िल्में भी बनती है जो समाज को शिक्षित करने का काम भी कर सकती हैं, पर हिन्दू समाज में इतना जहर भरा हुआ है कि ये इसका सकारात्मक रूप देख ही नहीं पाता.
Om Bhagat via FB
ReplyDeleteBharat Bhushan Ji you raised a very good issue, not only films, sometimes TV programmes & newspaper also participated in this. The only solution is the education & education.