Saturday, December 31, 2011
Monday, December 26, 2011
Punjab Elections-2012
पंजाब में विधान सभा के चुनाव का बिगुल बज चुका है. इस
बार भी मेघ समाज को किसी राजनीतिक
पार्टी ने पार्टी टिकट नहीं दी. जालंधर वेस्ट विधान सभा क्षेत्र में
सिवाय भारतीय जनता पार्टी व बहुजन समाज पार्टी के पूरे
पंजाब में
किसी और पार्टी ने टिकट नहीं दिया. अब सवाल यह उठता है कि मेघों को क्या करना चाहिए?
इसका सीधा-सा जवाब यह है कि मेघ समाज को पंजाब में आपनी शक्ति दिखने के लिए सभी
आरक्षित सीटों पर खुद
इलेक्शन लड़ना चाहिए. महारथी
वह होता है जो युद्ध में अपने अधिकार के लिए लड़ता
है. मेघ समाज को अपने अस्तित्व के लिए इस बार ज़रूर कुछ करना चाहिए वरना
आने वाली पीढ़ियों को हम क्या जवाब देंगे. भगत महासभा की ओर से पूरा जोर लगाया जा
रहा है
कि मेघ समाज पंजाब में स्वतंत्र रूप से सभी रिसर्व हलकों पर अपने उमीदवार उतारे.
कहाँ-कहाँ
पर मेघ उम्मीदवार विधान सभा चुनाव लड़ सकते हैं?
उम्मीद है कि इस बार मेघ समाज पंजाब में 10 हलकों से
चुनाव लड़ सकता है.
1.
पठानकोट कि तीनों हलकों में मेघ उमीदवार आजाद उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ सकते
है.
2.
गुरदासपुर के बटाला विधान सभा हलके से मेघ उम्मीदवार आजाद चुनाव लड़ सकते हैं.
3.
अमृतसर के वेस्ट रिसर्व हलके से मेघ समाज आजाद चुनाव लड़ सकता है.
4.
अबोहर के तीनों विधान सभा हलकों से मेघ समाज इस बार आजाद चुनाव लड़ सकता है.
प्रो.राज
कुमार
भगत
महासभा
Source: Megh Politics
Sunday, December 25, 2011
Saturday, December 24, 2011
Friday, December 23, 2011
Ready for Press? – प्रैस के लिए तैयार हैं?
मेघ भगतों में संभवतः कुछ
सदस्य होंगे जिन्होंने जन-संपर्क का कार्य किया हो और उन्हें प्रैस कांफ्रैंसिस
कराने का अनुभव भी हो. राजनीतिक गतिविधियाँ बढ़ने के साथ ही इस समुदाय को प्रैस या
पत्रकार सम्मेलन कराने की आवश्यकता पड़ेगी. भविष्य में तो जरूर ही होगी. भारत का
मीडिया दलितों के प्रति बहुत भेदभावपूर्ण रवैया रखता है. इसलिए अन्य स्थानीय और
माननीय लोगों को इसमें शामिल करके इस कठिनाई पर कुछ हद तक पार पाया जा सकता है. लेकिन
उनसे अधिक उम्मीद न रखें. अपना न्यूज़ लेटर शुरू करें.
इस विषय में ये आलेख पढ़
लेना लाभकारी होगा. इसके अतिरिक्त स्थानीय परिस्थितियों और आवश्यकताओं को भी देख
लें और तदनुसार विवेकपूर्वक निर्णय लें.
How to Write a Press Release for an Event
How to conduct a news conference
Dealing with press
Hold a press conference
Thursday, December 22, 2011
Media ignored us – मीडिया ख़बर खा गया
दिनाँक 18-12-2011
को पठानकोट में भगत महासभा ने अपना राजनीतिक अस्तित्व दर्शाते हुए एक प्रैस
कांफ्रैंस की जिसमें भगत महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. राजकुमार और इस सभा के
पंजाब राज्याध्यक्ष श्री राजेश कुमार स्वयं उपस्थित थे.
प्रैस कांफ्रैंस का
उद्देश्य मीडिया के माध्यम से यह संदेश देना था कि मेघ भगतों के संगठित प्रयास पंजाब
में मज़बूत हैं और कि राजनीतिक पार्टियाँ इस समुदाय को समुचित प्रतिनिधित्व दें.
इस प्रयोजन से पठानकोट के लिए सुश्री आशा भगत का नाम विशेष रूप से सामने लाया गया.
पंजाब में फरवरी 2012
में चुनाव होने जा रहे हैं. राजनीतिक गतिविधियाँ बढ़ गई हैं. ज़ाहिर है कि मीडिया
भाव खा रहा है (राजनीतिक खबरों का रेट बढ़ गया है) और उसने यह खबर प्रकाशित नहीं
की. भारत में दलितों का अपना प्रभावशाली मीडिया होना चाहिए, इसकी आवश्यकता और भी
गंभीरता से महसूस हुई.
इसी स्थिति का दूसरा
पक्ष है. पठानकोट और आसपास के क्षेत्रों में मेघ भगत वोटरों की संख्या चौबीस हज़ार से ऊपर
है जबकि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल द्वारा छापे गए दस्तावेज़ में इनकी संख्या चार हज़ार पाँच सौ बताई गई है.
ऐसा करने का एक ही
उद्देश्य है कि मेघ भगतों की शक्ति का आकलन कम करके दिखाया जाए. ये
राजनीतिक पार्टियाँ ऐसा षडयंत्र करने का साहस इसलिए करती हैं क्योंकि हमारी
अपनी संगठनात्मक क्षमता सवालों के घेरों में है. कुल मिला कर परिणाम यह कि मेघ भगतों को
राजनीतिक दृष्टि से किसी गिनती में नहीं लिया जाता. पठानकोट के लगभग 16 हज़ार
मेघ वोटरों को यह दस्तावेज़ खा गया. वे कहाँ हैं जी? पूरे पंजाब में तो हाल देखने लायक होगा.
मीडिया हमारी खबरों
को खा जाता है और राजनीतिक पार्टियाँ हमारी संख्या को निगल जाती हैं. जागो मेघ
जागो!! लिंक रोड्स पर नहीं,
हाइवे पर एकत्रित हो जाओ.
Megh Politics
Megh Politics
Tuesday, December 20, 2011
Elections and money - चुनाव और पैसा
दिल्ली में एक बच्चे
के जन्मदिन पर प्रबुद्ध मेघों का जमावड़ा हुआ. उसमें कुछ ऐसे सज्जन मेघ थे जिन्हें
चुनाव लड़ने और हारने का अनुभव था. बातचीत शुरू हुई और महफिल गर्मा गई.
एक ने हँसते हुए दूसरे
को कहा, “मैंने तो इलैक्शन लड़ा था. तुम तो पैसे लेकर बैठ
गए.”
“तुम्हें किसने कहा?”
“ऑपोज़िट उम्मीदवार ने.”
“तू तो उसी की सुन ले....वैसे मैंने ऐसा कुछ नहीं
किया.”
“तो बैठे क्यों थे? ज़मानत
बचाने के लिए? हैं?”
इन तीखे सवालों के
बाद की बातचीत का ब्यौरा काफी कड़वा (मेघ मधाण) है. सच्चाई क्या थी मैं भी नहीं जानता. इसलिए मुद्दे की बात करता हूँ.
चुनाव में जीत या
हार होनी होती है. लेकिन यह बैठ जाने की स्थिति मनोरंजक और रुचिकर है. तीखी आवाज़
में सीधा आरोप, “सुना भई, कितने पैसे लिए बैठने
के?”
चलो यह मान कर चलते
हैं कि आज की तारीख में बैठने का रेट 60-70 लाख रुपए है. मतलब कि ‘अपना’ एक आदमी ठीक-ठाक सी
दिखने वाली अमीरी रेखा में आ गया. कुछ ईमानदार-से
दिखने वाले लोग कहेंगे कि यह तो पब्लिक के साथ धोखा है. क्या चुनाव जीतने वाला
पब्लिक से धोखा नहीं करता आया है, यह उलटा सवाल पूछा जा सकता है उनसे. और चुनाव
जीतने वाले कौन थे? मेघ थे क्या? समाचार-पत्र पब्लिक
से हुए धोखे की खबरों से भरे हुए हैं, आज भी.
ज़रूरी तो नहीं लेकिन चुनावों में पैसे ले
कर बैठ जाने वाले लोग इन कारणों से मुझे प्रिय हो भी सकते हैं.
1. यदि वे अपने परिवार की उन्नति के लिए इसका प्रयोग करते हैं.
2. यदि वे समाज-सेवा के कार्यों में इसे लगाते हैं.
3. यदि वे आगामी चुनावों के लिए इसे बचा कर रखते हैं.
1. यदि वे अपने परिवार की उन्नति के लिए इसका प्रयोग करते हैं.
2. यदि वे समाज-सेवा के कार्यों में इसे लगाते हैं.
3. यदि वे आगामी चुनावों के लिए इसे बचा कर रखते हैं.
राजनीति की जड़ समाज-सेवा में होती है लेकिन हमेशा नहीं. क्योंकि राजनीति और चुनाव में पैसे और गुंडेपन का ज़ोर सब जगह दिखता है. समाज-सेवा करने वाला कोई व्यक्ति चुनाव लड़ता
है और हार जाता है तो उसकी जड़ें नहीं सूखतीं, चलो यह मान लेते हैं. लेकिन ऐसी समाज-सेवा करने के लिए धन
भी चाहिए. यह धन कहाँ से आएगा, इस पर सोचें. विश्वास रखें जब आप पैसे के बारे में सोंचेंगे तो पैसा आएगा
भी ज़रूर.
मेरी एक सलाह आपको है. जब राजनीति करें तो धर्म, नैतिकता वगैरा को थोड़ी देर के लिए किनारे रख दें लेकिन मंदिर जाना न छोड़ें. अगर चुनाव जीत जाते हैं तो धर्म और धार्मिक आयोजनों का प्रयोग अपनी राजनीति चलाए रखने के लिए करें. इससे आपके राजनीतिक करियर की सफलता की संभावनाएँ बहुत बढ़ जाती हैं.
यह आलेख पढ़ कर यदि नैतिकता आपको कष्ट दे रही है तो बेहतर है कि आप राजनीति से दूर रहें. बुरा न मनाना दोस्तो अभी हाल ही में चंडीगढ़ जैसे पढ़े-लिखे शहर में नगर निगम के चुनाव में शराब धड़ाधड़ बँटी है. समाचार पत्र इस खबर से अटे पड़े हैं. यह है सच्चाई.
Megh Politics
मेरी एक सलाह आपको है. जब राजनीति करें तो धर्म, नैतिकता वगैरा को थोड़ी देर के लिए किनारे रख दें लेकिन मंदिर जाना न छोड़ें. अगर चुनाव जीत जाते हैं तो धर्म और धार्मिक आयोजनों का प्रयोग अपनी राजनीति चलाए रखने के लिए करें. इससे आपके राजनीतिक करियर की सफलता की संभावनाएँ बहुत बढ़ जाती हैं.
यह आलेख पढ़ कर यदि नैतिकता आपको कष्ट दे रही है तो बेहतर है कि आप राजनीति से दूर रहें. बुरा न मनाना दोस्तो अभी हाल ही में चंडीगढ़ जैसे पढ़े-लिखे शहर में नगर निगम के चुनाव में शराब धड़ाधड़ बँटी है. समाचार पत्र इस खबर से अटे पड़े हैं. यह है सच्चाई.
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Saturday, December 17, 2011
भगत महासभा की गतिविधियाँ तेज़
पंजाब में जहाँ तक
मेरी नज़र जाती है अभी तक जालंधर मेघ राजनीति का गढ़ रहा है. अमृतसर और लुधियाना
में भी राजनीति करने वाले मेघ भगत हैं. लेकिन राज्य स्तर का राजनीतिज्ञ अभी तक
नहीं है. इन दिनों भगत महासभा की गतिविधियाँ पंजाब में और जम्मू-कश्मीर में बढ़ गई
हैं. ऐसा फेसबुक से पता चला है. दिनाँक 18-12-2011 को पठानकोट में भगत महासभा अपनी
राजनीतिक पहचान के साथ प्रैस कान्फ्रैंस करने जा रही है. इसी प्रकार 18-12-2011 को जम्मू क्षेत्र
में आर.एस. पुरा, बिश्नाह और विजयपुर में भगत महासभा अपनी बैठकों का एक क्रम शुरू
करने जा रही है. देखते हैं वहाँ से क्या रिपोर्ट्स आती हैं.
संदर्भ
Thursday, December 15, 2011
Why there is no unity in Megh community - मेघवंश समुदाय में एकता क्यों नहीं होती
(1)
प्रतिदिन यह प्रश्न पूछा जाता है कि
मेघवंशियों में एकता क्यों नहीं होती. इस प्रश्न की गंभीरता का रंग अत्यंत काला है
जिसे रोशनी की ज़रूरत है. यदि मेघवंशियों का आधुनिक इतिहास लिखा जाए तो उसमें एक
वाक्य अवश्य लिखा रहेगा कि इनमें एकता नहीं है. एकता न होना एक नकली चीज़ है जो
गुलामी का जीवन जी रहे/जी चुके लोगों में पाई जाती है. यह एक मानसिकता है जो
यात्नाएँ दे कर गुलामों में विकसित की जाती है. उन्हें विश्वास
दिलाया जाता है कि वे न तो एक हैं और न ही एक हो सकते हैं. उनके समूहों के नाम, धर्म आदि अलग कर दिए जाते हैं. उन्हें यह विचार दिया जाता है
कि उनका धर्म, जाति या दर्जा अलग-अलग है. इस तरह
उन्हें एक-दूसरे से अलग रहने की आदत डाल दी जाती है और सामाजिक दबाव से मजबूर किया
जाता है कि वे एक दूसरे से संपर्क न बढ़ाएँ. जाति आधारित इस गुलामी (Caste based slavery), जिसे भारतीय
गुलामी
(Indian slavery) कहा जाता है, में बने रहने की मजबूरी याद दिलाई जाती रहती है. इससे उन्हें मानवीय अधिकारों (Human rights) से
दूर रखना आसान हो जाता है. वे शिक्षा,
कमाई के बेहतर साधनों, सम्मानपूर्ण जीवन आदि से दूर कर दिए जाते हैं. यदि शिक्षा
द्वारा इस तथ्य को समझ लिया जाए तो इस मानसिकता से पूरी तरह पार पाया जा सकता है
और सामाजिक एकता लाई जा सकती है. इसका लाभ यह होगा कि आत्मविश्वास बढ़ेगा और सब के
साथ मिल कर चलने की शक्ति आएगी. लोकतंत्र में अपने विकास के मुद्दों पर बात कहने
के लिए सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मंच साझा करने की
और संगठन की आवश्यकता है. एक मंच पर आएँ. अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का यही एक रास्ता है.
(2)
हाल ही में एक शहर में मेघ समुदाय ने
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के जन्मदिन पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया. आजोजन सफल रहा.
अधिक जानकारी लेने के लिए आयोजकों और मध्यम स्तर के तथा नए (युवा) नेताओं से बात
की तो मतभेद और आरोप खुल कर सामने आ गए. यहाँ मेरा उद्देश्य उनका खुलासा करना नहीं
है. ये मतभेद आदि तो केवल लक्षण मात्र हैं. यहाँ मैं उनके कारणों की जाँच करना
चाहता हूँ.
‘हममें क्यों एकता नहीं होती’....यह सवाल अब कई संदर्भों में उठने
लगा है. दो-एक अधिक पिछड़े समुदाय मेघों से आगे निकल चुके हैं जिन्हें मेघ अपने से
कमतर मानते थे. आगे बढ़ चुके समुदाय अब अन्य जातियों के साथ अधिक समन्वयन करके आर्थिक
संपन्नता की ओर बढ़ चुके हैं और राजनीतिक सत्ता में उनकी भागीदारी बढ़ी है. एक
राज्य में तो उनकी मुख्यमंत्री है. जाहिर है कि एकता और फिर सत्ता में भागीदारी के
बिना सामूहिक संपन्नता नहीं आ सकती. बिखरे हुए समूह लोकतंत्र में हैसीयत खो देते
हैं क्यों कि वे दबाव समूह नहीं बन सकते.
वहाँ की स्थिति से जो समझा उसे यहाँ लिख
रहा हूँ-
1. उत्साह, अवसर, समर्थन, मार्गदर्शन, धन, नेतृत्व आदि सब कुछ था, समन्वय नहीं था.
2. पृष्ठभूमि में राजनीतिक दल थे.
उन्होंने समुदाय के आंतरिक नेतृत्व को उभरने नहीं दिया. इससे असंतोष हुआ. युवा इस
प्रक्रिया को समझ नहीं सके. प्रशिक्षण की कमी स्पष्ट थी.
3. कुछ युवकों में मशहूर होने की
महत्वाकाँक्षा आवश्यकता से अधिक थी.
4. समन्वय और सहयोग की जगह दोषारोपण का
दूषित दौर शुरू हो गया.
5. युवाओं से लेकर अनुभवी लोगों तक ने
समुदाय को कोसना जारी रखा कि यह अनपढ़ तबका है, ये
एकता कर ही नहीं सकते, इन्हें समझाना असंभव है, इनमें आगे बढ़ने की इच्छा ही नहीं है आदि पुराने वाक्य
सैंकड़ों बार दोहराए गए. नतीजा - वही ढाक के तीन पात – सब कुछ हुआ लेकिन कार्यक्रम से संतुष्टि नहीं हुई. एक दूसरे की
आलोचना की गई परंतु कार्यक्रम के बाद की जाने वाली आवश्यक समीक्षा करना किसी को
याद नहीं रहा.
प्रबंधन गुरुओं ने इन सारी स्थितियों पर
अपार प्रशिक्षण सामग्री और साहित्य रचा है. मेघ समुदाय के लोग बार-बार
समाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ चलाते हैं, असफल होते हैं और बाहर-भीतर से टूटते हैं
क्योंकि जहाँ से शुरू करते हैं, वहीं पहुँच जाते हैं. यह कष्ट देने वाली स्थिति है.
समन्वय क्यों नहीं होता
- सामूहिक गतिविधि का अर्थ लोकप्रियता
लगाया जाता है
- सामूहिक लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता
- मिशनरी भावना नहीं है, प्रत्येक गतिविधि अल्पकालिक होती है
- कोई भी कार्यक्रम शुरू होने से पहले
स्थानीय राजनीति करने वाले अपना कुचक्र शुरू कर देते हैं. राजनीतिक जागरूकता न
होने से संगठन टूटने लगता है.
सुझाव
1. नेतृत्व देने वाले नेता समुदाय के
सदस्यों के प्रति अपशब्द बोलना बंद करें. अपशब्दों से नकारात्मक प्रतिक्रिया होती
है.
2. समुदाय के लोग शताब्दियों की ग़रीबी
से प्रभावित हैं. आप उनसे अचानक एकता की आशा कैसे कर सकते हैं. उनका मन अचानक अपनी
सभी बाधाएँ दूर करके आपसे कैसे मिल सकता है. उन्हें प्रताड़ना दे-दे करके विभाजित रहने
की आदत डाली गई थी. उनके साथ प्रेम का बर्ताव करें.
3. राजनीतिक दखलअंदाज़ी रहेगी, युवा कार्यकर्ताओं का प्रबंधन गुरुओं द्वारा समुचित प्रशिक्षण
इसके नकारात्मक प्रभाव को रोक सकता है.
4. लक्ष्य तय और स्पष्ट हों.
5. आपसी सहयोग और समन्वय की आवश्यकता को
पहले समझा/समझाया जाए.
6. अपने सामाजिक कार्यक्रमों को भी
प्रशिक्षण का मंच बनाएँ.
7. सबसे बढ़ कर महिलाओं को
शिक्षित-प्रशिक्षित करें. एक महिला पूरे परिवार और गली मोहल्ले के लिए शिक्षिका बन
जाती है. बच्चों को संस्कार द्वारा जो वह बना सकती है वह कार्य देश के नेता नहीं
कर सकते. माता ने जो संस्कार दे दिया वह अवश्य फलित होता है.
देश को नेता नहीं बनाते. देश को और
नेताओं को महिलाएँ ही बनाती हैं. पहले उनके प्रशिक्षण का प्रबंध करें.
मेघनेट पर इस आलेख के नीचे टिप्पणीकार
श्री पी.एन. सुब्रमणियन द्वारा दिया गया लिंक यहाँ जोड़ा गया है. (स्त्री सशक्तिकरण) सुब्रमणियन जी को कोटिशः धन्यवाद
Megh Politics
Megh Politics
Political notes of 80 years old Virumal - 80 वर्षीय वीरूमल जी के राजनीतिक नोट्स
(यहाँ जो लिखा गया
है वह श्री वीरूमल, पीसीएस (सेवानिवृत्त) के मेघ राजनीति के बारे में विचार हैं.
श्री वीरूमल आज भी सरकारी कार्यालयों में आरक्षण नीति के विशेषज्ञ माने जाते हैं
और इसी क्षेत्र में सक्रिय हैं. ये मेघ समुदाय से हैं लेकिन सरकारी नौकरी के समय
से ही इनका दायरा चमार समुदाय में रहा है. उनके ये विचार scribbling के रूप में मिले हैं. उनकी भाषा का हिंदीकरण किया गया है.)
ऐतिहासिक दृष्टि से मेघों, कबीरपंथियों की अपनी कोई पॉवरफुल सामाजिक लॉबी कभी
भी नहीं रही है, चाहे वे किसी भी धर्म या मत के क्यों न हों.
पॉवर फुल लॉबी के लिए एक धर्म का होना सकारात्मक तत्त्व होता है. यदि ऐसा न हो तो इसका
एक ही हल समझ में आता है कि अपने ऑरिजिन
को आधार बनाया जाए. देश के कई समुदाय मेघ भगत, मेघवाल आदि मेघ ऋषि में अपना मूल
देखते हैं तो उसी आधार पर एकता का प्रयास करना चाहिए.
अपने निजी विकास के लिए सहारा लेने
हेतु हम इधर-उधर के कई (धर्मों में) गए हैं. सिखों ने हमें अपनी ओर खींचा, आर्यसमाज ने अपनी ओर खींचा. ऐसा वे अपनी संख्या
बढ़ाने के लिए करते हैं. इनकी नीति एक ही रहती है कि ग़रीब का पेट न भूखा अच्छा -
न भरा अच्छा. इनका प्रयास यही रहता है कि दलितों को दे चाहे दो लेकिन इतना नहीं कि
ये कभी बड़ा हिस्सा माँगने लगें. ऐसी स्थिति में आप किसी को भी मानें लेकिन अपने
ऑरिजिन के नाम पर एक हो जाएँ. ऑरिजिन के नाम पर किसी संगठन का अस्तित्व में आ जाना
महत्वपूर्ण हो जाता है.
हमारी वर्तमान हालत ऐसी है कि हम
स्वयं स्वतंत्र रूप से आगे नहीं बढ़ सकते. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को
भी अन्य समुदायों को साथ लेना पड़ा है. उसने बीजेपी के साथ मिल कर दो बार कोलिशन
सरकार बनाई है. उसके पास पैसे की कमी थी लेकिन फिर भी स्वयं सरकार बनाई. आज उसके
पास, जैसे भी आया हो, पैसा है. उसे अन्य समुदायों, विशेष कर दलितों, के साथ मिल कर
कार्य करना होगा. कमज़ोर व्यक्ति को उठने के लिए किसी अन्य का सहारा लेना पड़ता
है. इसी प्रकार से अपने हित को साधना होगा.
कई लोग कहते हैं कि सरकारें दलितों
को हड्डी से अधिक कुछ नहीं देतीं. मेरा कहना है कि यदि कोई सरकार हड्डी देती है तो
थोड़ा आगे बढ़ कर माँस भी पकड़ो. इस दृष्टि से चमार समुदाय से बहुत कुछ सीखना होगा.
उनसे सहयोग लेना होगा और उन्हें सहयोग देना भी होगा. वे अब काफी संगठित हो चुके हैं.
Megh Politics
Meghs and Arya Samaj - मेघ और आर्य समाज
स्यालकोट से विस्थापित हो कर आए
मेघवंशी, जो
स्वयं को भगत भी कहते हैं, आर्यसमाज द्वारा इनकी शिक्षा के
लिए किए गए कार्य से अक़सर बहुत भावुक हो जाते हैं. प्रथमतः मैं उनसे सहमत हूँ.
आर्यसमाज ने ही सबसे पहले इनकी शिक्षा का प्रबंध किया था. इससे कई मेघ भगतों को
शिक्षित होने और प्रगति करने का मौका मिला. परंतु कुछ और तथ्य भी हैं जिनसे नज़र
फेरी नहीं जा सकती.
स्वतंत्रता से पहले स्यालकोट की
तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की कुछ विशेषताएँ थीं जिन्हें जान लेना
ज़रूरी है.
तब स्यालकोट के मेघवंशियों (मेघों)
को इस्लाम, ईसाई
धर्म और सिख पंथ अपनी खींचने में लगे थे. स्यालकोट नगर में रोज़गार के काफी अवसर
थे. यहाँ के मेघों को उद्योगों में रोज़गार मिलना शुरू हो गया था और वे आर्थिक रूप
से सशक्त हो रहे थे. इनके सामाजिक संगठन तैयार हो रहे थे. उल्लेखनीय है कि ये
आर्यसमाज द्वारा आयोजित ‘शुद्धिकरण’ की
प्रक्रिया से गुज़रने से पहले मुख्यतः कबीर धर्म के अनुयायी थे. ये सिंधु घाटी सभ्यता
के कई अन्य कबीलों की भाँति अपने मृत पूर्वजों की पूजा करते थे जिनसे संबंधित डेरे
और डेरियाँ आज भी जम्मू में हैं. शायद कुछ पाकस्तान में भी हों. कपड़ा बुनने का
व्यवसाय मेघ ऋषि और कबीर से जुड़ा है और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में कोली, कोरी, मेघवाल, मेघवार आदि
समुदाय भी इसी व्यवसाय से जुड़े हैं.
इन्हीं दिनों लाला गंगाराम ने मेघों
के लिए स्यालकोट से दूर एक ‘आर्यनगर’ की परिकल्पना की और एक ऐसे क्षेत्र में
इन्हें बसने के लिए प्रेरित किया जहाँ मुसलमानों की संख्या हिंदुओं से अधिक थी. सन् 1903 से शुरू हो कर स्यालकोट, गुजरात (पाकिस्तान) और गुरदासपुर में 36000 मेघों
का शुद्धिकरण करके उन्हें ‘हिंदू दायरे’ में लाया गया. सुना है कि आर्यनगर के आसपास के क्षेत्र में ‘मेघों’ के ‘आर्य भगत’ बन जाने से वहाँ मुसलमानों की संख्या 51 प्रतिशत से घट कर 49 प्रतिशत रह
गई. वह क्षेत्र लगभग जंगल था.
खुली आँखों से देखा जाए तो धर्म के
दो रूप हैं. पहला है अच्छे गुणों को धारण करना. इस धर्म को प्रत्येक व्यक्ति घर
में बैठ कर किसी सुलझे हुए व्यक्ति के सान्निध्य में धारण कर सकता है. दूसरा, बाहरी और बड़ा मुख्य रूप है
धर्म के नाम पर और धर्म के माध्यम से धन बटोर कर राजनीति करना. विषय को इस दृष्टि
से और बेहतर तरीके से समझने के लिए कबीर के कार्य को समझना आवश्यक है.
सामाजिक और धार्मिक स्तर पर कबीर और
उनके संतमत ने निराकार-भक्ति को एक आंदोलन का रूप दे दिया था जो निरंतर फैल रहा था
और साथ ही पुनर्जन्म और कर्म सिद्धांत पर इसने कई प्रश्न लगा दिए थे. इससे
ब्राह्मण चिंतित थे क्योंकि पैसा संतमत से संबंधित गुरुओं और धार्मिक स्थलों की ओर
जाने लगा. आगे चल कर ब्राह्मणों ने एक ओर कबीर की वाणी में बहुत उलटफेर कर दिया, दूसरी ओर निराकारवादी
आर्यसमाजी (वैदिक) विचारधारा का पुनः प्रतिपादन किया ताकि ‘निराकार-भक्ति’
की ओर जाते धन और जन के प्रवाह को रोका जा सके. उन्होंने दासता और
अति ग़रीबी की हालत में रखे जा रहे मेघों को कई प्रयोजनों से लक्ष्य करके स्यालकोट
में कार्य किया. आर्यसमाज ने शुद्धिकरण जैसी प्रचारात्मक प्रक्रिया अपनाई और
अंग्रेज़ों के समक्ष हिंदुओं की बढ़ी हुई संख्या दर्शाने में सफलता पाई. इसका लाभ
यह हुआ कि मेघों में आत्मविश्वास जागा और उनकी स्थानीय राजनीति में सक्रियता की
इच्छा को बल मिला. हानि यह हुई उनकी इस राजनीतिक इच्छा को तोड़ने के लिए मेघों के
मुकाबले आर्य मेघों या आर्य भगतों को अलग और ऊँची पहचान और अलग नाम दे कर उनका एक
और विभाजन कर दिया गया जिसे समझने में सदियों से अशिक्षित रखे गए मेघ असफल रहे.
इससे सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक बिखराव बढ़ गया.
भारत विभाजन के बाद लगभग सभी मेघ
पंजाब (भारत) में आ गए. यहाँ उनकी अपेक्षाएँ आर्यसमाज से बहुत अधिक थीं. लेकिन
मेघों के उत्थान के मामले में आर्यसमाज ने धीरे-धीरे अपना हाथ खींच लिया. यहाँ
भारत में मेघ भगतों की आवश्यकता हिंदू के रूप में कम और सस्ते मज़दूरों (Cheap labor) के तौर पर अधिक
थी. दूसरी ओर भारत विभाजन के बाद भारत में आए मेघों की अपनी कोई राजनीतिक या
धार्मिक पहचान नहीं थी. धर्मों या राजनीतिक पार्टियों ने इन्हें जिधर-जिधर समानता
का बोर्ड दिखाया ये उधर-उधर जाने को विवश थे. धार्मिक दृष्टि से राधास्वामी मत और
सिख धर्म ने भी वही कार्य किया जो ब्रहामणों ने ‘निराकार’ के माध्यम से किया. राधास्वामी मत को कबीर धर्म या संतमत का ही रूप माना
जाता है लेकिन यह उत्तर प्रदेश में कायस्थों के हाथों में गया और पंजाब में जाटों
के हाथों में. सिखइज़्म और राधास्वामी मत के साहित्य में मानवता और समानता की बात
है लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है सस्ता श्रम कोई खोना नहीं चाहता. वैसे भी धर्म
का काम ग़रीब को ग़रीबी में रहने का तरीका बताना तो हो सकता है लेकिन उसकी उन्नति
और विकास का काम धर्म के कार्यक्षेत्र में नहीं आता. यह कार्य राजनीति और सत्ता
करती है लेकिन आज तक मेघों की कोई सुनवाई राजनीति में नहीं है और न सत्ता में उनकी
कोई भागीदारी है. तथापि मेघों ने एक सकारात्मक कार्य किया कि इन्होंने बड़ी तेज़ी
से बुनकरों का पुश्तैनी कार्य छोड़ कर अपनी कुशलता अन्य कार्यों में दिखाई और
उसमें सफल हुए.
दूसरी ओर विभिन्न स्तरों पर मेघों
के बँटने का सिलसिला रुका नहीं. ये कई धर्मों-संप्रदायों में बँटे. कई कबीर धर्म
में लौट आए. कई राधास्वामी मत में चले गए. कुछ गुरु गद्दियों में बँट गए. कुछ ने
सिखी और ईसाईयत में हाथ आज़माया. कुछ ने देवी-देवताओं में शरण ली. कुछ आर्यसमाज के
हो गए. वैसे कुल मिला कर ये स्वयं को मेघऋषि के वंशज मानते हैं और भावनात्मक रूप
से कबीर से जुड़े हैं. मेघवंशियों में गुजरात के मेघवारों ने अपने ‘बारमतिपंथ धर्म’ को सुरक्षित रखा है. राजनीतिक एकता में राजस्थान के मेघवाल आगे हैं.
विडंबना ही कही जाएगी कि इन मेघवंशियों की आपस में राजनीतिक पहचान अभी प्रगाढ़
नहीं है. हालाँकि यह चिरप्रतीक्षित है और बहुत ज़रूरी है.
(विशेष टिप्पणी- इस संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए आप कपूरथला के डॉ. ध्यान सिंह (जो स्वयं मेघ समुदाय से हैं) का शोधग्रंथ देख सकते हैं.)
Wednesday, December 14, 2011
Political ambitions of Meghs - मेघों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा
पंजाब में विधान सभा
के चुनाव फरवरी 2012 में होने जा रहे हैं. सुना है कि इस बार कम-से-कम 10 मेघ भगत
किसी पार्टी की ओर से या स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव में खड़े हो सकते
हैं. देखना है कि हमारी तैयारी कितनी है.
शुद्धीकरण की
प्रक्रिया से गुजरने के बाद सन् 1910 तक मेघों में जैसे ही अत्मविश्वास
जगा तुरत ही उनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागृत हो गई. इसे लेकर अन्य समुदाय चौकन्ने हो गए. अपने हाथ में आई सत्ता को कोई
किसी दूसरे को थाली में नहीं परोसता कि 'आइये
हुजूर मंत्रालय हाज़िर है'. तब से लेकर आज तक वह महत्वाकांक्षा ज्यों की त्यों है लेकिन समुदाय में राजनीतिक एकता
का कहीं अता-पता नहीं.
भारत विभाजन के बाद
मेघ भगतों का
कांग्रेस की झोली में गिरना स्वाभाविक था. अन्य कोई पार्टी थी ही
नहीं. फिर आपातकाल के बाद जनता पार्टी का बोलबाला हुआ. जालन्धर से श्री रोशन लाल
को जनता पार्टी का टिकट मिला. पूरे देश में जनता पार्टी को अभूतपूर्व जीत मिली.
लेकिन भार्गव नगर से जनता पार्टी हार गई. देसराज की 75 वर्षीय माँ ने हलधर पर मोहर लगाई, विजय के 80 वर्षीय पिता ने हलधर पर ठप्पा लगाया. ये दोनों छोटे दूकानदार थे.
लेकिन इस चुनाव क्षेत्र से दर्शन सिंह के.पी. (के.पी. = (शायद) कबीर पंथी) चुनाव
जीत गया. राजनीतिक शिक्षा के अभाव में मेघ भगतों के वोट बँट गए.
फिर भगत चूनी लाल
(वर्तमान में पंजाब विधान सभा के डिप्टी स्पीकर) यहाँ से दो बार बीजेपी के टिकट से
जीते. लेकिन समुदाय के लोगों को हमेशा शिकायत रही कि इन्होंने बिरादरी के लिए उतना
कार्य नहीं किया जितना ये कर सकते थे. कहते हैं कि नेता आसानी से समुदाय से ऊपर उठ जाते हैं और फिर 'अपनों' की ओर मुड़ कर नहीं देखते. यहाँ एक
विशेष टिप्पणी आवश्यक है कि यदि कोई नेता विधान सभा का सदस्य बन जाता है तो वह
किसी समुदाय/बिरादरी विशेष का नहीं रह जाता. वह सारे चुनाव क्षेत्र का होता है.
दूसरी वस्तुस्थिति यह है कि हमारे नेताओं की बात संबंधित पार्टी की हाई कमान अधिक
सुनती नहीं है. मेघ भगत ज़रा सोचें कि
वे कितनी बार अपने नेताओं के साथ सड़कों पर उतरे हैं, कितनी बार उन्होंने अपनी माँगों की लड़ाई लड़ते हुए हाईवे को जाम किया है या अपने नेता के पक्ष में शक्ति प्रदर्शन किया है. इसके
उत्तर से ही उनके नेता और उसके
समर्थकों की शक्ति का अनुमान लगाया जाएगा.
सी.पी.आई. के टिकट से जीते एक मेघ (मेघवाल) चौधरी नत्थूराम मलौट से पंजाब विधान सभा में दो बार चुन कर आए. इन्हीं के पिता श्री
दाना
राम तीन बार सीपीआई की टिकट से जीत कर विधानसभा में आए हैं. पता नहीं
उनके
बारे में लोग कितना जानते हैं.
सत्ता में भागीदारी का सपना 1910 में हमारे पुरखों ने देखा
था. वे मज़बूत थे. इस बीच क्या हमें अधिक मज़बूत
नहीं होना चाहिए था? सोचें. 'एकता ही शक्ति है' की समझ जितनी जल्दी आ जाए
उतना अच्छा. एकता की कमी और राजनीतिक पिछड़ेपन का हमेशा का साथ है.
राजनीतिक पार्टी कोई भी हो, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.
सब का चेहरा एक जैसा होता है. महत्वपूर्ण है कि मेघ
समाज आपस में जुड़ने की आदत डाले. आपस में जुड़ गए तो स्वतंत्र उम्मीदवार को भी जिता सकते हैं. यही बात है जो बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ नहीं चाहतीं. इस हालत में आपको क्या करना चाहिए?
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