(यहाँ जो लिखा गया
है वह श्री वीरूमल, पीसीएस (सेवानिवृत्त) के मेघ राजनीति के बारे में विचार हैं.
श्री वीरूमल आज भी सरकारी कार्यालयों में आरक्षण नीति के विशेषज्ञ माने जाते हैं
और इसी क्षेत्र में सक्रिय हैं. ये मेघ समुदाय से हैं लेकिन सरकारी नौकरी के समय
से ही इनका दायरा चमार समुदाय में रहा है. उनके ये विचार scribbling के रूप में मिले हैं. उनकी भाषा का हिंदीकरण किया गया है.)
ऐतिहासिक दृष्टि से मेघों, कबीरपंथियों की अपनी कोई पॉवरफुल सामाजिक लॉबी कभी
भी नहीं रही है, चाहे वे किसी भी धर्म या मत के क्यों न हों.
पॉवर फुल लॉबी के लिए एक धर्म का होना सकारात्मक तत्त्व होता है. यदि ऐसा न हो तो इसका
एक ही हल समझ में आता है कि अपने ऑरिजिन
को आधार बनाया जाए. देश के कई समुदाय मेघ भगत, मेघवाल आदि मेघ ऋषि में अपना मूल
देखते हैं तो उसी आधार पर एकता का प्रयास करना चाहिए.
अपने निजी विकास के लिए सहारा लेने
हेतु हम इधर-उधर के कई (धर्मों में) गए हैं. सिखों ने हमें अपनी ओर खींचा, आर्यसमाज ने अपनी ओर खींचा. ऐसा वे अपनी संख्या
बढ़ाने के लिए करते हैं. इनकी नीति एक ही रहती है कि ग़रीब का पेट न भूखा अच्छा -
न भरा अच्छा. इनका प्रयास यही रहता है कि दलितों को दे चाहे दो लेकिन इतना नहीं कि
ये कभी बड़ा हिस्सा माँगने लगें. ऐसी स्थिति में आप किसी को भी मानें लेकिन अपने
ऑरिजिन के नाम पर एक हो जाएँ. ऑरिजिन के नाम पर किसी संगठन का अस्तित्व में आ जाना
महत्वपूर्ण हो जाता है.
हमारी वर्तमान हालत ऐसी है कि हम
स्वयं स्वतंत्र रूप से आगे नहीं बढ़ सकते. उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को
भी अन्य समुदायों को साथ लेना पड़ा है. उसने बीजेपी के साथ मिल कर दो बार कोलिशन
सरकार बनाई है. उसके पास पैसे की कमी थी लेकिन फिर भी स्वयं सरकार बनाई. आज उसके
पास, जैसे भी आया हो, पैसा है. उसे अन्य समुदायों, विशेष कर दलितों, के साथ मिल कर
कार्य करना होगा. कमज़ोर व्यक्ति को उठने के लिए किसी अन्य का सहारा लेना पड़ता
है. इसी प्रकार से अपने हित को साधना होगा.
कई लोग कहते हैं कि सरकारें दलितों
को हड्डी से अधिक कुछ नहीं देतीं. मेरा कहना है कि यदि कोई सरकार हड्डी देती है तो
थोड़ा आगे बढ़ कर माँस भी पकड़ो. इस दृष्टि से चमार समुदाय से बहुत कुछ सीखना होगा.
उनसे सहयोग लेना होगा और उन्हें सहयोग देना भी होगा. वे अब काफी संगठित हो चुके हैं.
Megh Politics
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