Thursday, May 24, 2012

Price rise - the worst starts now – बढ़ती महँगाई - साढ़े साती

सरकार ने पैट्रोल की कीमत साढ़े सात रुपए बढ़ाई है. बाकी चीज़ों की कीमतें बढ़ने का सिलसिला जल्द ही शुरू हो जाएगा.

अब याद आ रहा है कि बहुराष्ट्रीय विदेशी कंपनियों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के द्वार खोल देने के बाद सन् 1992 में डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था मेरे बाद आने वाले वित्त मंत्री आराम से कार्य कर सकेंगे (या सो सकेंगे). उल्लेखनीय है कि बदलाव की इस नीति के लिए भाजपा ने कांग्रेस का पूरा साथ दिया था. वामपंथी दल (पता नहीं उन्हें वामपंथी क्यों कहा जाता है) ही थे जो इसके विरुद्ध मुखर थे. कुछ ऐसे दल भी रहे जो आधे मन से साथ दे रहे थे. कई राजनीतिज्ञों ने साफ़ कह दिया था कि देश को बेच डाला गया है.

आज पैट्रोल की कीमत बढ़ी है. कल डीज़ल और रसोई गैस की कीमत बढ़ेगी. हमने बड़ी आशाओं के साथ नई अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था. आशाएँ उन परिस्थितियों की कामना को कहते हैं जिनसे व्यक्ति सुख की अपेक्षा करता है. दुनिया में सुख का सीधा संबंध धन-दौलत से है. जिनके पास धन-दौलत नहीं होती वे अभाव में जीने का तरीका आध्यात्मिक शिक्षा से सीख लेते हैं. कबीर की प्रार्थना है कि- साई इतना दीजिए जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाए. कबीर की प्रार्थना व्यावहारिक है जो अपने साथ-साथ कई अन्य साधुओं के लिए भी माँग रही है. यानि आवश्यकता से अधिक मांगने की परंपरा संत मत में भी रही.

जब हमने अमेरिकी टाइप की अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया था तो हमारे पास अमेरिका जैसी परिस्थितियाँ नहीं थीं. वह पढ़े-लिखों का देश है. दूसरे वह अपने नागरिकों के लिए दूरगामी नीतियाँ बनाने में सक्षम है. हमने अपनी अर्थव्यवस्था को दूसरे मुल्कों के लिए खोला वह भी मजबूरी और दबाव में.

इन परिस्थियों में जनता क्या करे. यदि वह कांग्रेस और भाजपा में से ही किसी को फिर से चुन कर लाती है तो उसे परिवर्तन के नाम पर कुछ मिलने वाला नहीं. यही नीतियाँ जारी रहेंगी. उधर वामपंथी दल अपना दर्शन बिछाए बैठे हैं जिसे भारत के असली ग़रीब ने कभी दिल से स्वीकार नहीं किया. यह तथ्य है कि भारत में ग़रीब का नेतृत्व करने वाला कोई राजनीतिक दल अभी तक अस्तित्व में नहीं आया. उधर मध्यम वर्ग की तकलीफ़ जटिल है. उसके पास राजनीतिक दल हैं तो सही, लेकिन जैसे ही पैसा आने लगता है तभी उसे चाट जाने के लिए सरकारी नीतियाँ जीभ लपलपाती आ जाती हैं. यही वर्ग है जो निम्न वर्ग में नहीं जाना चाहता. निम्न और मध्यम वर्ग ही हैं जिनके खून-पसीने से धनी वर्ग बनता है और यही धनी वर्ग पैसे से राजनीतिज्ञों की मदद करके अपने पक्ष में सरकारी नीतियाँ बनवाता है. संक्षेप में धनी वर्ग (जिसे पहले सामंतवादी व्यवस्था कहा जाता था लेकिन अब कुछ पारिभाषिक परिवर्तन करके कार्पोरेट क्षेत्र कहा जाता है) और सरकार मिल कर नीचे के दोनों वर्गों के भाग्य विधाता बन जाते हैं.

मामलों के एक जानकार ने बताया है कि हमारा रुपया बीच गली में पिटा. हमने एफडीआई को अपने घर में आने से रोका था, इसलिए डॉलर ने रुपए को गली में पीट दिया. अब यदि भारत एफडीआई को घर में घुसने दे तो विदेशी कंपनियाँ डॉलर को डांट सकती हैं और रुपये को पुचकार कर खड़ा कर सकती हैं. क्या दबंगई है भई !!

आइये, बढ़ती कीमतों के खिलाफ़ हम सड़कों पर उतरें और ज़ोरदार विरोध प्रदर्शन करें ताकि ऐसी सरकारी नीतियाँ बनाई जाएँ जिनसे मध्यम और निम्न वर्ग के पास धन टिके और वे गुणवत्ता का जीवन जी सकें.

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Tuesday, May 22, 2012

Do we have advocates - क्या हमारे पास एडवोकेट हैं



किसी ने पूछा कि देश को कौन चलाता है तो विद्वान आदमी ने उत्तर दिया, “देश को एडवोकेट चलाते हैं.”

महात्मा गाँधी एडवोकेट थे. वे अंग्रेज़ों के कानून और परंपराओं को जानते थे इसलिए उनसे भिड़ जाते थे. फिर जवाहरलाल नेहरू आए. वे भी एडवोकेट थे. उनके पिता नामी-गिरामी एडवोकेट थे. आज संसद पर नज़र डालें तो पाएँगे कि पक्ष-विपक्ष में एडवोकेटों की यह जमात छाई हुई है. ये सरकार के फैसलों को प्रभावित करते हैं. चूँकि ये संसद में बैठे हैं अतः बाहर की दुनिया को भी अच्छे-बुरे तरीके से प्रभावित करने की स्थिति में हैं.

भारत में एडवोकेट सत्ता पर क़ाबिज़ हैं. वर्तमान में राज्य सभा और लोकसभा में कई सांसद हैं जो प्रखर एडवोकेट हैं. बहुत से मंत्री एडवोकेट हैं. कई सांसद बनने के बाद धनी हुए. क्या यह केवल संयोग की बात है या इसके पीछे कोई तत्त्व है. मैं मानता हूँ कि इसके पीछे एडवोकेट होने का तत्त्व महत्व रखता है.

मैंने नेट पर एक पुस्तक में पढ़ा था कि मेघों की विशेषता थी कि ये अदालतों में नहीं जाते थे. पता नहीं यह विशेषता थी या उनकी ग़रीबी से पैदा मजबूरी थी. लेकिन आर्यसमाज के समर्थन से शिक्षा प्राप्त मेघों के दो बालक जो अपने समुदाय में पहले शिक्षित और स्नातक हुए वे दोनों एडवोकेट बने. श्री जगदीश मित्र और श्री हंसराज. जगदीश मित्र का जीवन छोटा रहा (*). श्री हंसराज डॉ. अंबेडकर से प्रभावित थे और उन्होंने उनके साथ मिल कर कार्य भी किया था. श्री हंसराज राजनीति में आए और दिल्ली में रह कर प्रेक्टिस की.

वैसे तो शेक्सपियर ने लिखा है- "पहला काम हम यह करें कि हम सभी वकीलों को मार दें." (ताकि राजा के आदेशों को चुनौती देने वाला कोई न रहे). यह नकारात्मक स्थिति में कहा गया है. सच यह है कि ये बेहतर राजनीतिज्ञ होते हैं. एडवोकेटों की मेघ समुदाय को भी आवश्यकता है और देश को भी. क्या हमारे पास ऐसे एडवोकेट हैं जो राजनीति में बड़े पैमाने पर आ सकें?

Too many advocates in Parliament - Economic Times 



(*) सुना है कि श्री जगदीश मित्र ने संन्यास ले लिया था और हरिद्वार चले गए थे. वहाँ उनका काफी सम्मान था और उनके लिए हाथी की सवारी उपलब्ध कराई गई थी. यह बात एक वृद्ध महिला ने बताई है.


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Saturday, May 19, 2012

The myth of Arya - आर्य शब्द की भ्रांतियाँ


आर्य का अर्थ साहित्यिक और शब्दकोशीय भ्रांतियाँ
 
कर्नल तिलक राज जी से कई बार फोन पर लंबी बातचीत होती है. पिछले दिनों ऐसी ही एक बातचीत के दौरान उन्होंने पूछ, भाई, यह बताओ कि आर्य शब्द का अर्थ क्या होता है” ? कर्नल साहब बहुत विद्वान व्यक्ति हैं. मैं तनिक होशियार हो कर बैठ गया. मैंने कहा, आर्य का अर्थ है जो बाहर से आकर आक्रमण करे.कर्नल साहब की आवाज़ की उमंग छिपी नहीं रह सकी. वे तुरत बोले, बिल्कुल सही. यह शब्द अरि’ (शत्रु) से बना है.फिर उन्होंने धातु के अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति बताई. उन्होंने आर्यसमाज के संस्थापक दयानंद नामक ब्राह्मण द्वारा प्रचारित अर्थ का उल्लेख किया और फिर कहा कि वह आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठबताता है.

शब्दकोशों में जिस तरह से चमार शब्द के साथ घृणा जोड़ी गई ठीक वैसे ही आर्य शब्द को महिमामंडित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई. इस पर मैंने अपने नोट्स नीचे दिए लिंक पर रखे हैं. यहीं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस आलेख में किसी बात के होते हुए भी यह तथ्य है कि किसी भी कारण से क्यों न हो, मेघ भगतों की शिक्षा का पहला प्रबंध आर्यसमाज ने ही किया था और मेघों को 'आर्य मेघ' और 'आर्य भगत' कहा. 

अब दलितों के नाम के साथ 'आर्य' लगाने का फार्मूला अपनाया गया है. लक्ष्य है यह सिद्ध करना कि ब्राहमण आर्य और दलित आर्य एक ही सभ्यता (सिंधुघाटी) की पैदाइश हैं. पिछले लगभग सवा सौ वर्षों से ब्राहमण आर्यजन सारा ज़ोर इसी पर लगाते दिख रहे हैं जबकि ऐतिहासिक जानकारियाँ इससे मेल नहीं खातीं. वैसे भी ये समय-समय पर स्थिति देख कर साहित्य के साथ छेड़-छाड़ करते रहे हैं और बिना मतलब के ऐसा नहीं किया जाता. लेकिन अब समय बदल गया है. सत्य को स्वीकारना बेहतर है.  






Saturday, May 12, 2012

Cartoon of Ambedkar – अंबेडकर का कार्टून


केशव शंकर पिल्लै रचित कार्टून


संसद हंगामों की राजधानी होती है. कोई किसी की टाँग खींचता है तो कोई किसी का कुर्ता, कोई किसी का कान खींचता है तो कोई किसी की लंगोटी खींचने को आतुर होता है. कार्टूनिस्टों के लिए एक भरी-पूरी दुनिया!!

बाबा साहेब के कार्टून पर विवाद क्यों उठा इस पर एक और विवाद हो चुका है और पी. चिदंबरम राहत महसूस कर रहे हैं. मैंने यह कार्टून पहले भी देखा है. फेसबुक पर भी इसे लेकर हंगामा हुआ. इस कार्टून में अंबेडकर का कोई अपमान होता नहीं दिखता. यह तो नेहरू और अंबेडकर दोनों का कार्टून है. हाँ इसमें संविधान बनने की प्रक्रिया के धीमे होने की बात है. देखने की ज़रूरत है कि आज इसका महत्व क्या है? क्या इसे पाठ्यक्रम में रखने की आवश्यकता है?

कुछ वर्ष पूर्व पढ़ा था कि पाकिस्तान में एक पाठ्य पुस्तक में स्कूली बच्चों के लिए प्रश्न था कि उस मुल्क का नाम बताओ जिसकी मिसाइल टेस्ट के दौरान समन्दर में जा गिरी थी (उत्तर था- भारत). कोई चाहे तो इस पर तिलमिला सकता है या हँस सकता है. ठीक वही बात इस कार्टून को लेकर भी है. सोचने की बात है कि बच्चों को यह पढ़ा कर कौन सा लक्ष्य साधा जा रहा है. भारत का संविधान बनाने की गति धीमी थी (या भारत की एक मिसाइल समुद्र में गिर गई थी), इसकी प्रासंगिकता क्या है? यदि गति धीमी थी तो उसे तेज़ करने के लिए क्या किया गया? उत्तर ढूँढने जाएँगे तो इससे यह संभावना अधिक बनेगी कि बच्चे कल इस बात को शीघ्रता से ग्रहण करेंगे कि नेहरू और अंबेडकर की जल्दबाज़ी के कारण संविधान का वर्तमान स्वरूप 'कॉपी-पेस्ट' से बना है जैसा कि कई वेबसाइट्स आदि पर लिखा गया है. दूसरी ओर पाकिस्तान के बच्चे कभी तो जान ही जाएँगे कि भारत अग्नि-5 जैसी आईबीएम का मालिक है. कोशिश यही होनी चाहिए कि बच्चों को तथ्यात्मक और उपयोग बातें पढ़ाई जाएँ. बच्चों में सकारात्मक राष्ट्रीय चरित्र भरने का आवश्यकता है. कार्टूनों की नकारात्मक कला भी इसमें योगदान देती है लेकिन उसका इतना महत्व नहीं है.

स्पष्ट है कि स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों के लिए सामग्री का चुनाव करने वालों के पास कोई विज़न नहीं है. कुछ वर्ष पूर्व बहुत छोटे बच्चों के लिए निर्धारित एक पाठ्य पुस्तक में लिखा था- घर मत चल’. उस वाक्य ने कितने बच्चों को यह संस्कार दिया और कितने परिवारों को उसके कारण कष्ट उठाने होंगे इसका आकलन करना कठिन है.

यह अत्यावश्यक है कि स्कूली पाठ्यक्रम बनाने के लिए ऐसे लोगों की तलाश की जाए जो बच्चों के मस्तिष्क रूपी कच्चे माल से बेहतर संसार का विनिर्माण करने की कला जानते हों.

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Indian weavers - a unique community - भारतीय जुलाहे - एक अद्भुत समुदाय


क्या कोई व्यक्ति अपनी आय के साधन को थाली में रख कर किसी अन्य के हाथ में सौंप देता है? हाँ, भारत के जुलाहों में यह बात है. उन्होंने उन सरकारी नीतियों के विरुद्ध संगठित आंदोलन नहीं चलाया जिनकी मदद से देश भर के मेघवंशी जुलाहों, बुनकरों, अंसारियों का व्यवसाय तबाह करके किन्हीं अन्य हाथों में सौंप दिया गया. एक करोड़ जुलाहे रोज़गार से बाहर हो गए.

भाई ! ग़रीब से अकिंचन हो जाने से बेहतर है कि ग़रीब से बेहतर कुछ बना जाए.

अंग्रेज सौदागर भारतीय कारीगरों को लुटते थे


Friday, May 11, 2012

Valmiki community (Scavengers) retain their income


चंडीगढ़ नगर निगम - सफाई की बातें, पैसे पर निशाना

आज भारत में जातीय संघर्ष के कई रूप दिखते हैं और अब यह मुख्यतः पैसे की ही सारी लड़ाई है. एक उदाहरण हाल ही में चंडीगढ़ में देखा.

घर-घर से कूड़ा उठाने वालों को एक दिन ख़बर मिली कि नगर निगम ने प्रयोग के तौर पर एक परियोजना शुरू की है कि निगम के कर्मचारी और ट्रक सैक्टर-22 के घरों में आकर घंटी बजाएँगे और वहाँ के रहने वालों से गारबेज बैग या कूड़ा बाल्टी से कूड़ा ले जाएँगे. कूड़ा उठाने का शुल्क 70 रुपए प्रतिमाह बिजली के बिल में शामिल करके भेजा जाएगा और लोगों को परंपरागत कूड़ा उठाने वालों की मनमानी से छुटकारा मिलेगा. बहुत खूब. लेकिन सफाई करने वाले समुदाय ने अचानक हड़ताल कर दी और निगम की कार्रवाई के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया. उन्होंने कूड़ा फेंकने के निर्धारित स्थानों की निगरानी की और चौकस दृष्टि के साथ आंदोलन चलाया. घरों में कूड़ा इकट्ठा होना शुरू हो गया. लोगों ने बहुत धैर्य का परिचय दिया. कुछ दिनों के बाद निगम ने बातचीत के बाद अपनी परियोजना को बंद करने का निर्णय लिया और सफाई करने वाले कार्य पर लौट आए. लोगों ने राहत की लंबी साँस ली. सिर्फ़ एक श्री शर्मा के अलावा, जिसे दि ट्रिब्यून ने संदर्भित करते हुए कहा था कि निगम ने ऐसे आंदोलन से निपटने के लिए पूरे प्रबंध नहीं किए थे.

सच्ची बात यह है कि मैं कई अनपढ़ों से गया गुज़रा हूँ. सोचा कि परंपरागत रूप से कूड़ा उठाने वालों की स्थिति के बारे में जानकारी ली जाए. सो अपने घर में सफ़ाई का काम करने वाली महिला को पूछा कि यह माजरा क्या था. उसने कूड़ा उठाने के कार्य की आर्थिकता की जो बात बताई उसका सार यह है-

ये कर्मचारी एक घर से कूड़ा उठाने के प्रति परिवार 50 रुपए लेते हैं. निगम 70 रुपए लेता जो एक घर में रहने वाले परिवारों या किराएदारों में बँट जाता. दूसरा पक्ष है कि कचरे के अतिरिक्त इन लोगों को इसमें ऐसी वस्तुएँ भी मिलती हैं जो कबाड़ के रूप में बिकती हैं. (यह सुनते ही मेरे दिमाग़ का बल्ब जला क्योंकि मैं पठानकोट के एक महाजन परिवार को जानता हूँ जिनके चार भाइयों में से तीन अच्छे साफ़-सुथरे दूकानदार हैं और एक कबाड़ का काम करता है. चारों में से सिर्फ़ कबाड़ का कार्य करने वाले भाई ने चंडीगढ़ जैसे महँगे शहर में मकान बनाया.) मेरे पूछने पर उस महिला ने बताया कि कई कूड़ा उठाने वालों को कबाड़ इकट्ठा करके महीने में चालीस-पचास हज़ार रुपए की आमदनी हो जाती है और कि उन लोगों ने अपने यहाँ कुछ युवाओं को रोज़गार भी दिया हुआ है. मेरी खोपड़ी घूम कर लौट आई. आयकर दाता हूँ सो तुरत ध्यान आया कि अरे ये भी टैक्स देते होंगे क्या? फिर तुरत ही कृषि से प्राप्त आय का ध्यान आया जिस पर कोई आयकर नहीं लगता क्योंकि कृषि एक जोखिम भरा व्यवसाय है.

ओके भाई साहब. अब आप कूड़ा उठाने वाले किसी भी व्यक्ति के खून की जब  चाहे जाँच करवा लें. वह कभी स्वस्थ नहीं निकलेगा. यह कार्य पूर्णतः जोखिम भरा है. फिर ये लोग आगे भी रोज़गार का उत्पादन कर रहे हैं. इससे प्राप्त आय को आय कैसे माना जा सकता है. नाइयों के कार्य को भी आयकर से मुक्त रखा गया है.

साफ़ बात है कि नगर निगम की निगाहें कबाड़ पर थीं और इस पूरे प्रकरण के पीछे किन्हीं ठेकेदारों की भूमिका थी जो कबाड़ के थोक व्यापारी हैं. कूड़ा उठाने वालों ने इस कूड़े को भी पहचान कर साफ़ किया. जय हो.

पैसे का संघर्ष लग़ातार चलने वाला है. कभी राजनीतिक फैसलों से और कभी नई तकनीक के नाम पर. लेकिन क्या कोई व्यक्ति अपनी आय के साधन को थाली में रख कर किसी अन्य के हाथ में ऐसे ही सौंप देता है? हाँ, भारत के जुलाहों में यह बात है जो विभिन्न नामों में बँटे हैं. उन्होंने उन सरकारी नीतियों के विरुद्ध कभी कोई संगठित आंदोलन नहीं चलाया जिनकी मदद से देश भर के मेघवंशी जुलाहों, अंसारियों के व्यवसाय को तबाह करके गिने-चुने उद्योगपतियों (ऊँची जातियों) के हाथों में सौंप दिया गया.

ग़रीब से अकिंचन हो जाने से बेहतर है कि ग़रीब से बेहतर कुछ बना जाए.


Megh Politics

Wednesday, May 9, 2012

Bharatiya Shudra Sangh (BSS) - भारतीय शूद्र संघ

भारत की दलित जातियाँ अपनी परंपरागत जाति पहचान से हटने के प्रयास करती रहीं हैं. इस बात को भारत का जातिगत पूर्वाग्रह भली-भाँति जानता है. मूलतः शूद्र के नाम से जानी जाती ये जातियाँ अपनी पहचान को लेकर बहुत कसमसाहट की स्थिति में हैं.

व्यक्ति जानता है कि यदि वह अपना कोई जातिनिरपेक्ष सेक्युलरसा नाम रख लेता है जैसे भारत भूषण या दशरथ कुमार या अर्जुन तो उसे हर दिन कोई न कोई व्यक्ति अवश्य पूछेगा कि भाई साहब आप अपना पूरा नाम बताएँगे? तो वह अपनी पहचान छिपाने के लिए दूसरी कोशिश करते हुए कहेगा, “भारत भूषण भारद्वाज. दूसरा व्यक्ति कहेगा, “यह तो ऋषि गोत्र हुआ. पूरा नाम…”. दो-चार सवालों के बाद उत्तर देने वाले व्यक्ति का स्वाभिमान आहत होने लगता है. वह जानता है कि उसकी जाति पहचान ढूँढने वाला व्यक्ति उसे हानि पहुँचाने वाला है.

अपनी पहचान के कारण संकट से गुज़र रही इन जातियों के सदस्यों ने अपने नाम के साथ सिंह, चौधरी, शर्मा, वर्मा, राजपूत, अग्रवाल, गुप्ता, मल्होत्रा, पंडित सब कुछ लगाया. लेकिन संकट टलता नज़र नहीं आता. मैंने अपने जीवन में इसका सरल हल निकाला कि नाम बताने के तुरत बाद मैं कह देता था कि मेरी जाति जुलाहा है, कश्मीरी जुलाहा (तर्ज़ वही रहती थी- My name is bond, James bond). :)) इससे पूछने वाले के प्रश्न शांत हो जाते थे और उसके मन को पढ़ने में मुझे भी आसानी हो जाती थी. इस तरीके से मुझे बहुत से बढ़िया इंसानों को पहचानने में मदद मिली.

अभी हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान भारतीय शूद्र संघके राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री प्रीतम सिंह कुलवंशी से बात हुई और उन्होंने एक पुस्तिका मुझे थमाते हुए कहा कि इसे देखिएगा. इसमें उल्लिखित बातों से बहुत-सी आशंकाओं का समाधान हो जाएगा. वह पुस्तिका मैंने ध्यान से पढ़ी है और उसका सार यहाँ लिख रहा हूँ.


भारतीय शूद्र संघ - मिशन

इस पुस्तिका में स्पष्ट लिखा गया है कि भारतीय शूद्र संघ, संघ नहीं एक मिशन है. इसमें मोहन जोदड़ो और हड़प्पा सभ्यताओं से लेकर आधुनिक युग तक भारत के मूलनिवासियों का बहुत ही संक्षिप्त इतिहास दिया गया है जो बहुत प्रभावकारी है. इसी के दूसरे पक्ष के तौर पर शूद्र समाज के सदस्य व्यक्ति की अस्मिता (पहचान) की बात उठाई गई है. इस संस्था का मिशन यह है कि शूद्र समाज के हर बुद्धिजीवी को एकजुट होकर स्वाभिमान के लिए प्रयास और संघर्ष करना पड़ेगा. अन्य बातों के साथ-साथ इस मिशन का उद्देश्य इस बात का प्रचार करना भी है कि शूद्र समाज के व्यक्ति अपने नाम के पूरक के तौर पर इन नामों का प्रयोग करें- भारती, भारतीय, रवि, अंबेडकर, भागवत, वैष्णव, सूर्यवंशी, कुलवंशी, नागवंशी, रंजन, भास्कर इत्यादि. उल्लेखनीय है कि ये नाम दलितों के साथ पहले भी जुड़े हैं. शायद यह मिशन ऐसे नामों की शार्ट लिस्ट (छोटी सूची) तैयार करना चाहता है या स्पष्ट पहचान वाले शब्दों को बढ़ावा देना चाहता है.

मिशन द्वारा वितरित पुस्तिका में बहुत से बिंदु हैं जिन पर गंभीर विचार मंथन आवश्यक है. दलितों के कई समूह सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संगठनों में बँट कर अलग-अलग कार्य कर रहे हैं. उनमें से कई बहुत बड़े स्तर पर सक्रिय हैं. उनका एक गठबंधन (confederation) तैयार करने की आवश्यकता है. सभी समूह अपना-अपना कार्य करें साथ ही अपना एक महासंघ गठित करें. इससे सुदृढ़ संगठन और एक साझा अनुशासन निर्मित होगा.

समाज के विभिन्न वर्गों में सदियों से चला आ रहा और घर-घर में फैला कर्मचारी-नियोक्ताका संबंध एक अविरल प्रक्रिया है. ऐसे सामाजिक संबंध का विकास तो होता है लेकिन यह अपना समय लेता है. यह मिशन इस तथ्य को स्पष्ट स्वीकारता है. 



Monday, May 7, 2012

Poor, divided and directionless - गरीबी, अनेकता और दिशा विहीनता


स्वतंत्रता के बाद भी मेघवंशियों की राजनीतिक अपेक्षाएँ कई कारणों से कुंठित होती रही हैं. विभिन्न नामों, स्थानों, भाषाओं, रीति-रिवाज़ों, भौगोलिक परिस्थितियों में बँटे मेघवंशियों के आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ेपन का चक्र है कि टूटने का नाम नहीं लेता. कारण है अनेकता और अनेकता.  

मेघवंश नाम का प्रयोग सर्वप्रथम मैंने श्री आर.पी. सिंह की पुस्तक मेघवंश : एक सिंहावलोकनमें पढ़ा था और लगा कि मेघ ऋषि में अपना उद्गम ढूँढने वाली सभी जातियों के समूह के लिए इससे बेहतर कोई दूसरा जातिवाचक शब्द नहीं हो सकता. इनमें मेघ, भगत, जुलाहे, बुनकर, मेघवाल, मेघवार, (इस्लाम अपना चुके) अंसारी आदि सभी आते हैं. ये सभी मेघवंशी जातियाँ मूलतः कपड़ा बनाने के कार्य से संबंद्ध रही हैं और सरकारी नीतियों के कारण इनकी आजीविका का स्रोत तबाह हो चुका है. कपड़ा बनाने का कार्य बड़ी जातियों और औद्योगिक घरानों ने संभाल लिया है. राजनीतिक फैसलों के कारण इन मेघवंशियों को मिली है गरीबी की निरंतरता. करोड़ों की संख्या में ये बेरोज़गार किए गए हैं ताकि उद्योगों और अन्य कार्य के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध रहे. ध्यान दें कि यह सब राजनीतिक फैसलों के तहत किया गया है.

सरकारी नीतियों के कारण उनका इस स्थिति में आ जाना मात्र संयोग नहीं है. जातिगत दुराग्रहों के कारण उन्हें इस हालत में लाया गया है. ये दलित जातियाँ हमेशा से संघर्षशील रही हैं और इनके संघर्ष के मूल में कबीर की विचारधारा प्रवाहित है. इसी परिप्रेक्ष्य में अब यह बात स्पष्टता के साथ समझी जाने लगी है कि यदि आर्थिक हालत सुधारनी है तो सुदृढ़ संगठन के माध्यम से राजनीतिक फैसलों को प्रभावित करना होगा और नीतियों को अपने पक्ष में कराना होगा. 

जब सामाजिक संगठन बनते हैं तो उनका अंतिम लक्ष्य प्रकारांतर से आर्थिक प्रगति ही होता है. अतः एक साझा धार्मिक आधार और सामाजिक-राजनीतिक संगठन तैयार करके इस लक्ष्य को साधा जा सकता है. लेकिन यह तभी संभव है जब ऐसे संगठनों को तोड़ने वाली ताकतों को समझा जाए और उनका प्रतिरोध करने की क्षमता का लग़ातार संयोजन किया जाए. 

संघर्ष यह है कि दिशा विहीनता को दिशा में बदलें, अनेकता के नकलीपन को समझें और समाप्त करें, ग़रीबी के प्रवाह में न बहें, उससे बाहर आएँ.

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